विश्व बोधःयुग प्रवर्तक कवि पं.मुकुटधर पाण्डेय

छायावाद और पं. मुकुटधर पांडेय लेखक डाँ०बलदेव
पं. मुकुटधर पांडेय का.जन्म 30 सितंबर सन् 1895 को बिलासपुर जिले बालपुर ग्राम में हुआ था। किंशुक-कानन-आवेष्टित चित्रोत्पला के तट - प्रदेश में बसा यह गाँव रायगढ़ - सारंगढ़ मार्ग पर चन्द्रपुर (जमींदारी) की पूर्व में स्थित है। और महानदी के पुल या किसी टीले से घनी अमराइयों से झाकता हुआ दिखाई देता है। सूर्यास्त के समय यहाँ की छटा निराली होती है। एक बालक पत्रिकाओं को उलट-पुलट कर देख रहा है, किस पन्ने में किन चित्रों के साथ भैया की कविता छपी है। उधर ममतामयी मां देवहुती रसोई से टेर लगा रही है..... इसी वातावरण में लुका-छिपी ... तुकबंदी होने लगती है। पितृशोक से वह और भी प्रबल हो जाती है। खेल ही खेल में ढेर-सी कविताएं रजत और स्वर्ण-पदकों की उद्घोषणा के साथ 'हितकारिणी', 'इन्दु', 'स्वदेश-बान्धव', आर्य महिला', 'सरस्वती', -जैसी प्रसिद्ध पत्रिकाओं में छपने लगती है। देखते ही देखते सन् 1916 में मुरली मुकुटधर पाण्डेय के नाम से इटावा के ब्रह्म प्रेस से सज-धज के साथ "पूजाफूल" का प्रकाशन होता है। उसी वर्ष प्रयाग विश्वविद्यालय से किशोर कवि प्रवेशिका में उत्तीर्ण भी हो जाता है। प्रयाग के क्रिश्चियन काँलेज में प्रवेश के साथ ही बचपन जैसे दूर-बहुत दूर छूटने लगता है.... कवि अधीर हो कर पुकार उठता है- बालकाल! तू मुझसे ऐसी आज विदा क्यों लेता है। मेरे इस सुखमय जीवन को दुःख भय से भर देता है। इलाहाबाद में रहते हुए दो-तीन माह मजे में गुजरे, फिर वहां से एक दिन अचानक ही टेलिग्राम और फिर सदा के लिए काँलेज का रास्ता बंद। बालपुर में पिताश्री व्दारा स्थापित विद्यालय में अध्ययन.... बाकी समय में हिन्दी, अँग्रेजी, बँगला और उड़िया साहित्य का गम्भीर अध्ययन, अनुवाद और स्वतंत्र लेखन। अब उनका ध्यान गाँव के काम करने वाले गरीब किसानों की ओर गया। उन्होंने श्रम की महिमा गाईः- छोड़ जन-संकुल नगर निवास किया क्यों विजन ग्राम में गेह नहीं प्रासादों की कुछ चाह कुटीरों से क्या इतना नेह फिर तो मानवीय करुणा का विस्तार होता ही गया और वह करुणा पशु-पंक्षियों और प्रकृति में भी प्रतिबिंबित होने लगी...... कुछ कुछ अँग्रेजी रोमांटिसिज्म की शुरुआत-जैसी। हिन्दी काव्य में एक नई ताज़गी पैदा हुई। स्थूल की जगह सूक्ष्म ने ली। व्दिवेदीयुगीन इतिवृत्तात्मकता फीकी पड़ने लगी। प्रेम और सौंदर्य का एक नया ताना-बाना बुना जाने लगा, जिसमें वैयक्तिक रागानुभूति के साथ ही रहस्यात्मक प्रवृतियां बढ़ने लगीं और पद्यात्मकता की जगह प्रगीतात्मकता प्रमुख होती गई। इसी धारा पर मैथिली शरण गुप्त, ब्रदीनाथ भट्ट, और जयशंकर प्रसाद भी अग्रसर हो रहे थे। इस समय तो पांडेय जी प्रायः सभी प्रमुख पत्रिकाओं के लिए महत्वपूर्ण हो उठे। इतना ही नहीं, "सरस्वती" की फ्री लिस्ट में उनका नाम दर्ज हो गया। पहले तो उन्होंने विशुद्ध मानवीय प्रेम का गीत गायाः- हुआ प्रथम जब उसका दर्शन गया हाथ से निकल तभी मन फिर यह पार्थिव प्रेम अपार्थिव प्रेम में बदल गयाः- देखेंगे नक्षत्रों में जा उनका दिव्य प्रकाश किसकी नेत्र ज्योति है अद्भुत किसके मुख का हास "कुटिल केश-चुंबित मुखमंडल का हास" कवि के मलिन लोचनों में सदा के लिए दिव्य प्रकाश बन गया। लेकिन यह अलौकिक सत्ता निवृत्तिमूलक नहीं प्रवृत्तिमूलक है। इसीलिए कवि उसे स्पष्ट भी कर देता है :- हुआ प्रकाश तमोमय जग में मिला मुझे तू तत्क्षण जग में तेरा बोध हुआ पग पग में खुला रहस्य महान साहित्य - संसार में युवा कवि मुकुटधर पांडेय का जीवन आनंद से बीत रहा था- कि एक दिन आधी रात किसी पक्षी के करुण विलाप से वें नींद से जाग उठे, करुणा से उनके हृदय के तार झनझना उठे। उन्होंने कविता लिखी -"कुररी के प्रति'।तब क्या उन्हें मालूम था कि छायावादी कविता आप से आप लिख जाती है। अकेली इस अमर रचना से छायावाद की भूमि निर्दिष्ट हो जाती है। अन्तरिक्ष में करता है तू क्यों अनवरत विलाप? ऐसी दारुण व्यथा तुझे क्या है किसका परिताप? किसी गुप्त दुष्कृति की स्मृति क्या उठी हृदय में जाग जला रही है तुझको अथवा प्रिय वियोग की आग और तब तक स्वच्छन्दावादी काव्यधारा आवेग में आ चुकी थी। समस्या उठी नामकरण की, पुराने आचार्य उसे मान्यता देना नहीं चाहते थे। नई कविता उनकी समझ में आती नहीं थी। तब इस नूतन पध्दति पर चलने वाली कविता पर चर्चाएँ होने लगीं। पं. मुकुटधर पांडेय ने सर्वप्रथम अपनी तर्कपूर्ण शैली में इस कविता-धारा को "छायावाद" नाम दिया। स्पष्ट विवेचना के कारण यह नाम सभी को उपयुक्त जान पड़ा। फिर शीध्र ही "छायावाद"नाम प्रचार में आ गया। लोगों ने उसे जितना ही दबाने का प्रयत्न किया, उतना ही वह उभरने लगा। "श्रीशारदा" में प्रकाशित उनके चार निबन्धों की यह लेखमाला हिन्दी साहित्य की अनुपम धरोहर है। युग -प्रर्वतक के साथ ही सब कुछ धुँधलाने लगा और पीड़ा से कवि का मुखर उद्गार अवरुध्द सा हो गया। एक लम्बे मौन के बाद .....मध्याह्न में बादलों में छिपा मार्तण्ड अपनी मोहक मुस्कान से पश्चिम की ओर एक बार फिर झाँकने लगा। अखबारों में उ.प्र. "हिन्दी संस्थान" व्दारा प्रकाशित सम्मानित साहित्यकारों की सूची में वयोवृद्ध साहित्यकार मुकुटधर पांडेय का नाम देखकर हार्दिक प्रसन्नता हुई। अपनी प्रसन्नता न रोक पाने के कारण मैं उनके पास तुरन्त पहुंचता हूँ। बधाई देने पर वे क्षण भर कुछ चकित-से होते हैं, फिर मुस्कुरा कर पूछते हैं- मैं संकोच मिश्रित हर्ष से कहता हूँ, "तीन अन्य साहित्यकार जगन्नाथ मिलिन्द, सोहनलाल व्दिवेदी, आदि प्रसिद्ध कवियों के सहित हिन्दी संस्थान लखनऊ आपको सम्मानित करने जा रहा है, तो वे कुछ संकोच में पड़ जाते हैं। पांडेय जी जितने सरल और निश्छल थे, उतने ही संकोची। इस सम्मान में उक्त प्रत्येक साहित्यकार को पन्द्रह हजार की राशि भेंट की गई थी। मुकुटधर पाण्डेय की अब तक प्रकाशित कृतियाँ इस प्रकार हैं :- 1- पूजाफूल, 1916, ब्रह्म प्रेस,इटावा 2- हृदयदान(कहानी-संग्रह) , 1918, गल्पमाला,बनारस 3- परिश्रम(निबंध-संग्रह) , 1917, हरिदास एवं कम्पनी, कलकत्ता। 4- लच्छमा (अनुदित उपन्यास), 1917 , हरिदास एण्ड कम्पनी, कलकत्ता 5- शैलबाला, 1916 6- मामा, 1924, रिखवदास वाहिनी एण्ड कम्पनी, कलकत्ता। 7- छायावाद एवं अन्य निबंध, 1979, म.प्र. हि. सा. सम्मेलन, भोपाल 8- स्मृति-पुंज , 1983, तिरुपति प्रकाशन, हापुड़ 9- विश्वबोध (काव्य-संग्रह) 1984, श्रीशारदा साहित्य सदन, रायगढ़ 10- छायावाद एवं अन्य श्रेष्ठ निबंध, 1984, श्रीशारदा साहित्य सदन, रायगढ़ 11-मेघदूत1984 छत्तीसगढ़ लेखक संघ, रायगढ़ मुकुटधर पाण्डेय उन यशस्वी साहित्यकारों में हैं , जो दो चार रचनाओं से ही अमर हो जाते हैं। एक बार आचार्य महावीर प्रसाद व्दिवेदी ने उन्हें लिखा था "आप वर्ष में कोई तीन रचनाएँ भेज दिया करें। उनकी सीख , कम लिखिए पर अच्छा लिखने की कोशिश कीजिए। दो चार कविताएं लिखकर ही आदमी अमर हो सकता है और यों बहुत लिखने पर सौ-पचास वर्षों के बाद लोग नाम तक याद नहीं रखते", ये वाक्य उनके लिए गुरुमंत्र सिध्द हुए। हिंदी में चन्द्रधर शर्मा गुलेरी, सरदार पूर्णासिंह और पण्डित मुकुटधर पांडेय ऐसे ही साहित्यकार हैं, जिन्हें लोग उनकी दो-चार रचनाओं पर ही वर्षों से ससम्मान स्मरण करते आ रहे हैं और करते रहेंगे। काल की बेला ने मनीषी पं. मुकुटधर पांडेय को 6 नवंबर 1989 को हमसे छीन लिया। कुररी के प्रति बता मुझे ऐ विहग विदेशी अपने जी की बात पिछड़ा था तू कहाँ, आ रहा जो कर इतनी रात निद्रा में जा पड़े कवि के ग्राम -मनुज स्वच्छंद अन्य विहग भी निज नीड़ों में सोते है सानन्द इस नीरव घटिका में उड़ता है तू चिन्तित गात पिछड़ा था तू कहाँ , हुई क्यों तुझको इतनी रात? देख किसी माया प्रान्तर का चित्रित चारु दुकूल? क्या तेरा मन मोहजाल में गया कहीँ था भूल? क्या उसकी सौंदर्य-सुरा से उठा हृदय तब ऊब? या आशा की मरीचिका से छला गया तू खूब? या होकर दिग्भ्रान्त लिया था तूने पथ प्रतिकूल? किसी प्रलोभन में पड़ अथवा गया कहीं था भूल? अन्तरिक्ष में करता है तू क्यों अनवरत विलाप ऐसी दारुण व्यथा तुझे क्या है किसका परिताप? किसी गुप्त दुष्कृति की स्मृति क्या उठी हृदय में जाग जला रही है तुझको अथवा प्रिय वियोग की आग? शून्य गगन में कौन सुनेगा तेरा विपुल विलाप? बता कौन सी व्यथा तुझे है, है किसका परिताप? यह ज्योत्सना रजनी हर सकती क्या तेरा न विषाद? या तुझको निज-जन्म भूमि की सता रही है याद? विमल ब्योम में टँगे मनोहर मणियों के ये दीप इन्द्रजाल तू उन्हें समझ कर जाता है न समीप यह कैसा भय-मय विभ्रम है कैसा यह उन्माद? नहीं ठहरता तू, आई क्या तुझे गेह की याद? कितनी दूर कहाँ किस दिशि में तेरा नित्य निवास विहग विदेशी आने का क्यों किया यहाँ आयास वहाँ कौन नक्षत्र - वृन्द करता आलोक प्रदान? गाती है तटिनी उस भू की बता कौन सा गान? कैसा स्निग्ध समीरण चलता कैसी वहाँ सुवास किया यहाँ आने का तूने कैसे यह आयास? कुररी के प्रति विहग विदेशी मिला आज तू बहुत दिनों के बाद तुझे देखकर फिर अतीत की आई मुझको याद किंशुक-कानन-आवेष्टित वह महानदी-तट देश सरस इक्षु के दण्ड, धान की नव मंजरी विशेष चट्टानों पर जल-धारा की कलकल ध्वनि अविराम, विजन बालुका-राशि , जहाँ तू करता था विश्राम चक्रवाक दंपत्ति की पल पल कैसी विकल पुकार कारण्डव-रव कहीं कहीं कलहंस वंश उद्गार कठिनाई से जिसे भूल पाया था हृदय अधीर आज उसी की स्मृति उभरी क्यों अन्तस्तल को चीर? किया न तूने बतलाने का अब तक कभी प्रयास किस सीमा के पार रुचिर है तेरा चिर-आवास सुना, स्वर्णमय भूमि वहाँ की मणिमय है आकाश वहाँ न तम का नाम कहीं है, रहता सदा प्रकाश भटक रहा तू दूर देश में कैसे यों बेहाल? क्या अदृष्ट की विडंबना को सकता कोई टाल अथवा तुझको दिया किसी ने निर्वासन का दण्ड? बता अवधि उसकी क्या , या वह निरवधि और अखण्ड? ऐसा क्या अक्षम्य किया तूने अपराध अमाप? कथ्य रहित यह रुदन , तथ्य का अथवा है अप्रलाप? या अभिचार हुआ कुछ, तुझ पर या कि किसी का शाप? प्रकट हुआ यह या तेरे प्राक्तन का पाप-कलाप? कोई सुने न सुने , सुनता कुछ अपने ही आप, अंतरिक्ष में करता है तू क्यों अनवरत विलाप? शरद सरोरुह खिले सरों में, फूले वन में कास सुनकर तेरा रुदन हास मिस करते वे परिहास। क्रौंच, कपोत, कीर करते हैं उपवन में अलाप सुनने को अवकाश किसे है तेरा करुण - विलाप? जिसे दूर करने का संभव कोई नहीं उपाय, निःसहाय , निरुपाय उसे तो सहना ही है हाय! दुःख -भूल , इस दुःख की स्मृति को कर दे तू निर्मूल, पर जो नहीं भूलने का है , सकता कैसे भूल? मंडराता तू नभो देश में, अपने पंख पसार, मन में तेरे मंडराते हैं, रह रह कौन विचार? जिसके पीछे दौड़ रहा तू, अनुदिन आत्म-विभोर जाने वह कैसी छलना है, उसका ओर न छोर ठिठक पड़ा तू देख ठगा सा सांध्य क्षितिज का राग जगा चुका वह कभी किसी के भग्न हृदय में आग परदेशी पक्षी , चिंता की धारा को दे मोड़ अंतर की पीड़ा को दे अब अन्तर-तर से जोड़। प्रियतम को पहचान उसे कर अपर्ण तन-मन-प्राण उसके चरणों में हो तेरे क्रन्दन का अवसान। सुना, उसे तू अपने. पीड़ित -व्यक्ति हृदय का हाल भटक रहा तू दूर देश में, क्यों ऐसा बेहाल? विश्वबोध संपादक:- डाँ.बलदेव

Post a Comment