दुर्ग दर्पण - दुर्ग जिले का इतिहास सन् 1921

Durg District Hindi Gazetteer 1921

जैसी की तैसी अगर जानन चाहहु गाथ।
तो देखहु धिर चित्त सों लै दर्पण निज हाथ ॥
गोकुलप्रसाद

जिला दुर्ग के डिपुटी कमिश्नर साहबान की सूची
1. एच.एम.लारी साहब 1-1906 से 23-1-1906 ई. तक
2. शंकर माधव बिटनवीस साहब 24-1-1906 से 30-4-1906 तक
3. मनोहर दामोदर रतनपारखी साहब 11-5-१906 से 21-5-1906 तक
शंकर माधव चिटनवीस साहब 22-5-1906 से 24-10-1907 तक
4. मेहंदी हसन साहब 25-0-1907 से 10-9-1908 तक
शंकर माधव चिटनवीस साहब 11-9-1908 से 10-5-1909 तक
मनोहर दामोदर रतनपारखी साहब 1-5-१909 से 20-5-1909 तक
मेहंदी हसन साहब 21-5-1909 से 7-12-1909 तक
शंकर माधव चिटनवीस साहब 8-12-1909 से 10-01-1910 तक
मेहंदी हसन साहब 12-1-1910 से 18-11-1911 तक
5. एफ. एल क्राफर्ड साहब 19-11-1911 से 30-4-1913 तक
6. सिराज अहमद साहब 1-5-1913 से 29-6-1913 तक
एफ.एल क्राफर्ड साहब 30-6-1913 से 6-5-१914 तक
सिराज अहमद साहब 7-5-1914 से 13-7-1914 तक
7. मुईनुद्दीनखाँ साहब 14-7-1614 से 2-1-1915 तक
सिराज अहमद साहब 3-1-1915 से 10-6-1915 तक
मेहंदी हसन साहब १1-6-1915 से 17-5-1916 तक
सिराज अहमद साहब 18-5-1916 से 20-6-1916 तक
मेहंदी हसन साहब 21-6-1916 से 22-10-1916 तक
8. ए. के. स्मिथ साहब 23-10-1916 से 28-5-1917 तक
9. सी. एफ. वाटरफाल साहब 29-5-1917 से 12-6-1917 तक
ए. के. स्मिथ साहब 13-6-1917 से 14-3-1918 तक
10. एफ. जे. वुडवर्ड साहब 15-3-1918 से 8-10-1918 तक
11. जे. ए. बाथर्स्ट साहब 9-10-1918 से 18-12-1919 तक
12. के. ई. जे. संजाना साहब 19-12-1919 से 18-1-1920 तक
13. एस. वाटर्स्टन साहब 19-1-1920 से 21-3-1920 तक
के. ई. जे. संजाना साहब 22-3-1920 से 11-4-1920 तक
14. मुहम्मद अब्दुस्सत्तार साहब 12-4-1920 से

दुर्ग जिला छत्तीसगढ़ कमिश्नरी के तीनों जिलों में सब से छोटा है। उसका रूप डमरू के समान है। वह उत्तर-दक्षिण लंबा चला गया है, परंतु बीच में चौडाई बहुत कम हो गई है।

विस्तार
जिले की नितांत लंबाई प्राय: 115 मील है। चौडाई बीच में 17 मील से अधिक नहीं है, परंतु उत्तर के छोर में 34 मील और दक्षिण में 70 मील है। इन भागों में पश्चिम की ओर जमींदारियाँ हैं, जंगल, विशेष कर इन्हीं जमींदारियों में ही है, परंतु कुछ थोडा सा आग्नेय कोण में खालसा में भी है। शेष भाग कृषिपूर्ण समान मैदान है। जिले का उतार ईशान कोण को है। दुर्ग नवीन जिला है, वह सन् 1906 ई. में रायपुर Raipur जिले की पुरानी दुर्ग तहसील और धमतरी Dhamtari , सिमगा Simga और मुंगेली Mungeli तहसीलों के कुछ भाग लेकर बनाया गया है। सन् 1907 में चांदा Chanda जिले की चार जमींदारियाँ भी इसमें शामिल कर ली गई। इस जिले की उत्तरी सीमा में खैरागढ Khairagarh और कवर्धा Kavardha रजवाडे और बिलासपुर Bilaspur जिला है। पश्चिम में रायपुर Raipur जिला, दक्षिण में कांकेर Kanker रजवाडे और चांदा और बालाघाट Balaghat के जिले हैं। जिला की स्थिति 20/23' और 22/1' उत्तरीय अक्षांश और 80/43' और 81/58' पूर्वीय देशान्तरांश के बीच पडती है। क्षेत्रफल इसका 4,645 वर्ग मील है। यह तीन तहसीलों में विभक्त है, उत्तर में बेमेतरा (1,566 वर्गमील) मध्य में दुर्ग (1064 वर्गमील) और दक्षिण में संजारी (2015 वर्ग मील) है। मैदान की ऊँचाई समुद्र जल तह से कुछ कम 1000 फुट है, केवल जमींदारियों में कुछ ऊँची ठौरें हैं, जैसे सिलहटी जमींदारी Silhati Jamidari में खनारी पहाडी समुद्र जल तह से 2463 फुट ऊँची है। यह मैकल पर्वत की श्रेणी की एक चोटी है। दक्षिण में आमागढ चौकी Ambagarh Chouki 1214 फुट की ऊँचाई पर स्थित है।



नदी
इस जिले की मुख्य नदी शिवनाथ Shivnath है।यह पानाबारस जमींदारी Panabaras Jamindari के जंगल से निकलकर उत्तर को बहती है। और खुजी जमींदारी को नांदगाँव रियासत Nandgaon Riyasat से अलग करती हुई पूर्व दिशा को कर दुर्ग तहसील में प्रवेश करती है और तांदुला Tandula नदी का जल लेती हुई दुर्ग और नंदकंठी Nankathti से होती हुई बेमेतरा तहसील में चली गई है। इसमें खारून Kharun नदी सिमगा के दक्षिण में जमघट Jamghat में आ मिली है। वहाँ से शिवनाथ जिले की पूर्व सीमा बनाती है। वह इस जिले के अंत तक उत्तरवाहिनी है । इस जिले में उसके सहायक नदी-नाले ये हैं- खरखरा Kharakhara, तांदुला, खारून, सोनपारसा Sonparasa, आमनेर Amner, सोढी Sodhi, डोटू Dotu, कर्रा Karra, दांफ Hanf। खरखरा, तांदुला औरा खारून, संजारी तहसील में बही हैं। ये सब उत्तर वाहिनी हैं अन्य नदियाँ पूर्व वाहिनी हैं । दुर्ग तहसील में सोनबारसा, आमनेर और बेमेतरा तहसील में सीढी, डोटू, कर्रा और हांफ बहती है । संजारी तहसील में तांदुला से एक बडी नहर निकाली गई है, जिसके बनाने में प्राय: एक करोड रुपया व्यय हुआ है।
जलवायु
इस जिले में मेह बहुधा 49 इंच प्रति वर्ष बरसता है। वायु-जल यहाँ का अच्छा है। गरमी तो विशेष पड़ती है, परन्तु वह स्वास्थ्य के लिये हानिकारक नहीं है।

इतिहास History - जैन राजा Jain kings
दुर्ग जिला प्राचीन महाकोशल का भाग है। महाकोशल में किसी समय जैनियों का, कभी बौद्धों का और कभी हिंदुओं का राज्य रहा आया। उसके इतिहास का पता प्राय: दो सहस्र वर्षों तक का लगता है। सब से प्राचीन जैनियों की विजय का पता उदयगिरि के हाथीगुफा शिलालेख से लगता है। उडीसा में जगन्नाथपुरी के निकट भुवनेश्वर नाम का एक प्रसिद्ध तीर्थस्थान है। वहाँ का शिवमंदिर शिल्पकारी में अद्वितीय समझा जाता है। भुवनेश्वर से तीन मील खण्डगिरि नाम की पर्वत श्रेणी है। उसके उत्तरीय छोर को उदयगिरि कहते हैं । वहीं पर हाथी गुम्फा है, जिसकी छत पर पाली भाषा में एक बडा भारी लेख खुदा हुआ है । वह सन् ईस्वी से 160 वर्ष पूर्व खोदा गया था। उसमें जैन राजा खाग्वेल के किये हुए कामों का उल्लेख है। उससे ज्ञात होता है कि खारबेल ने पश्चिम की ओर चढाई करके कन्हान और बैनगंगा के संग परे मूषिक देश तक जीत लिया था। इससे स्पष्ट है कि मध्यवर्ती दुर्ग जिला अवश्य ही उसके अधीन आ गया होगा। उसने और उसके वंश ने इस ओर का राज्य कितने दिन किया, इसका अभी तक पता नहीं लगा, परंतु यदि राजर्षिवंशकुल और राजर्षितुल्यकल एक ही है तो कहा जा सकता है कि खारवेल के वंशज महाकौशल में जमकर प्राय: साढे सात सौ वर्षों तक राज्य करते रहे । हाथीगुम्फा के लेख में राजसि बस कुल विनिश्रितों महाविजयों यह संस्कृत में 'राजर्षिवंशकुल विनि:सृतो महाविजयो राजा ज्ञारवेल श्री:' के बराबर है।
राजा खारवेल सिरि का उल्लेख है और रायपुर जिलान्तर्गत आरंग ग्राम में मिले हुए ताम्रपट में ' पूर्वसद्राजर्षि तुल्य कुल प्रमाव कीर्ते: श्रीमहाराज शूरस्य प्रपौत्र...महाराज भीमसेन: लिखा है ।यह लेख सन् 601 ईस्वी का है। आरंग जैनियों का मुख्य स्थान था, अब भी वहाँ पर प्राचीन जैन मंदिर विद्यमान है, परंतु भीमसेन का ताम्र पट हिंदू राजा का जान पडता है। इतना होने पर भी यह असंभव नहीं है कि भीमसेन खारबेल का वंशज रहा हो । इस महाकौशल में कई क्षत्रिय राजा हो गए हैं, जो बौद्धधर्म का पालन करते रहे और उसके वंशज हिंदूधर्म का पालन करने लगे।
गुप्त राजा Gupt Kings
जो कुछ हो, आरंभ वाले राजा पाटलिपुत्र के गुप्त राजाओं के अधीन थे, यह एक इसी बात से स्पष्ट है कि आरंग के लेख में गुप्तसम्बत् का उपयोग किया गया है। यदि वे उनके अधीन न होते तो कदाचित् कलचुरि या अन्य संवत् का उपयोग करते। प्रयाग की लाट में जो लेख खुदा है, उससे स्पष्ट है कि महाराज समुद्रगुप्त ने जब दक्षिण कोशल पर आक्रमण किया था, तब वहाँ राजा महेन्द्र का राज्य था। उसको हरा कर उसने उसका राज्य फेर दिया था । यह खोष्टीय चतुर्थ शताब्दी के मध्यकाल की बात है। अभी तक पता नहीं लगा कि महेन्द्र किस वंश का था। राजर्षि तुल्यकुल का आदि पुरुष शूर नाम का राजा बतलाया गया है । उससे छठवीं पीढी में सन् 1901 ईस्वी में भीमसेन राज्य करता था। इससे जान पडता है कि शूर का राज्य लगभग पंचम शताब्दी के अंत में शुरू हुआ होगा, परंतु समुद्रगुप्त ने महाकौशल की विजय शूर के समय से कहीं डेढक सौ वर्ष पूर्व की थी। संभव है कि शूर महेन्द्र के वंश ही का रहा हो, उस वंश की शाखा शूर से किसी कारण बदल गई हो, या वह भिन्न वंश रहा हो जिसका अंत होकर राज्य नवीन वंश में चला गया हो । जो कुछ हुआ हो, इतनी बात तो स्थिर जान पडुती है कि गुप्तों का प्रभाव सप्तम शताब्दी के आरंभ तक अवश्य बना रहा।
बौद्ध राजा Baudd Kings
जान पड़ता है कि सप्तम शताब्दी में महाकौशल में एक ही राजा नहीं था। भिन्न-भिन्न भागों में भिन्न-भिन्न राजा थे, परंतु मूल राजधानी भद्रपत्तन या भद्रावती वर्तमान भांदक में थी। यह स्थान चांदा जिले में है। उस जमाने पं में वह प्रख्यात स्थान था। चीनी यात्री युवनच्चंग ने सन् 639 ईस्वी में इसको स्वयं आकर देखा था। अपनी यात्रा की पुस्तक में उसने लिखा है कि यहाँ का राजा क्षत्रिय है, परंतु बौद्धधर्म पालता है। उसने यह भी लिखा है कि यहाँ पर दस सहस्त्र बौद्ध पुजारी हैं, जिससे भांदक की उन्नति और गौरव का सरलता से अनुमान किया जा सकता है । युवनच्चंग के लेख से जान पडता है कि भांदक का राजा समस्त महाकौशल का अधिकारी था, तब तो दुर्ग अवश्य बौद्ध राज्यान्तर्गत रहा होगा, चाहे वहाँ स्थानीय छोटे राजा अन्य रहे हों। दुर्ग में पाली लेख व बौद्धधर्म संबंधी कई चिह्न मिले हैं, जिनसे बौद्ध आधिपत्य प्रगट होता है। दुर्ग के परे सिरपुर और तुरतुरिया में बुद्घ की विशाल मूर्तियाँ भी अभी तक वर्तमान हैं, जिनमें बौद्धधर्म का बीजमंत्र खुदा हुआ है।
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शैव राजा Shaiv Kings
बौद्धों का लोप कब हुआ, इसका कहीं पूरा प्रमाण नहीं मिलता, परंतु जान पडुत्ता है कि जब तक भांदक का राजवंश भांदक को राजधानी बनाये रहा, तब तक बौद्ध धर्म की मान्यता करता रहा, यद्यपि उसने राजा उदयन के समय में शैवधर्म का ग्रहण कर लिया और थोडे ही दिनों के अनन्तर राजधानी पलट दी और रायपुर जिले के श्रीपुर वर्तमान सिरपुर को श्रेय दिया। उदयन अपने को पांडुवंश का बताता है। इसका पन्ती महाशिव तीवरदेव था, जिसके ताम्रपत्र राजिम में मिले हैं। इसका समय लगभग अष्टम शताब्दी निश्चित किया गया है। इन्हीं राजाओं के समय में दुर्ग बसाया गया और शिवदेव नामक राजा ने यहाँ पर एक किला बनवा कर उसका नाम शिवदुर्ग रखा, जिसका कालांतर में प्रथम भाग कटकर केवल दुर्ग रह गया और बिगड कर दुरुग या द्रुग हो गया।

हैहय वंशी Haihai Kings
शिवदेव या सिरपुर के राजाओं का आधिपत्य कब चला गया, इसका भी स्पष्ट प्रमाण नहीं मिलता, परंतु इसमें सन्देह नहीं कि इनके पीछे हैहयवंशियों का अमल हुआ। राष्ट्रीय दसवीं शताब्दी में हैहयों ने पहले पहल बिलासपुर जिले में जड जमायी और क्रमश: सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ अपने अधीन कर लिया। बारहवीं शताब्दी में उनका जगपाल नामी मांडलिक इस ओर राज्य करता था। वह गंगा दक्षिण के तटस्थ बडहर से आया था और जाति का राजमाल था। राजिम के एक शिला लेख से जान पड्ता है कि जगपाल ने जगपालपुर नामक नगर बसाया और अपनी राजधानी बनायी । दंतकथा के अनुसार जगपाल दुर्ग ही में राज्य करता था। कदाचित् दुर्ग का नाम बदल कर उसने जगपालपुर रखा है। जब उसका अधिकार चला गया तो राजधानी का नवीन नाम भी उसी के साथ लुप्त हो गया हो, क्योंकि मूल नाम बडी कठिनता से मिटते हैं, यथा दिल्ली के कितने बहुत से नाम बदले गये, परन्तु वे थोडे दिन चले, फिर मिट गये और प्राचीन नाम का पूर्ववत् प्रचार बना ही चला गया।

रायपुरी हैहय
हैहय पहले तुम्माण में आकर बसे थे, परंतु राजा रत्नदेव ने वहाँ से 45 मील पर एक नवीन बस्ती अपने नाम पर बसायी और रतनपुर को राजधानी बनायी | कालान्तर में प्रबंध के लिये हैहयों के वंशज रायपुर में रहने लगे और उनकी अलग शाखा चलने लगी । इस शाखा ने रतनपुर से बिलकुल संबंध तो नहीं तोडु दिया, परंतु राजकाज स्वतंत्रतापूर्वक ही चलाना आरंभ कर दिय!। इस प्रकार दुर्ग जिले का शासन प्राय: चौदहवीं शताब्दी से रायपुर शाखा के द्वारा होने लगा और अठारहवीं शताब्दी तक स्थिर रहा।
हैहय शासन-पद्धधति
जान पडुता है कि हैहयों के आगमन से पूर्व इस ओर जो शासन प्रणाली प्रचलित थी, वही उन्होंने स्थिर रखी और अधिक अदल-बदल नहीं की। आदि में स्वभावत: विस्तार बढाने का नशा चढा रहता है। प्राचीन राजाओं को दिग्विजय का बडा शौक रहता था। हैहय इससे मुक्त नहीं थे, वे भी चारों ओर धावा करते रहे और जहाँ अवसर मिला, अन्य राजाओं को हरा कर अपने अधीन कर लिया, परंतु उन्हें अपने स्थान पर स्थिर रखा । राज्य की क्षमता के अनुसार उन्होंने कर स्थिर कर दिया, परंतु राज्यवस्था में हस्तक्षेप नहीं किया। इस प्रकार जाजल्लदेव के समय में अर्थात् सौ वर्ष के भीतर दूर-दूर तक चारों ओर के राजा उनके अधीन हो गए। सन् 1114 ई. के एक शिलालेख से जान पडता है कि गोदावरी के उस पार खिमडी का राजा भी इनको कर देता था। इसी प्रकार वैरागढ, लांजो, भंडारा, तलहारी, दंडकपुर, नन्दावली, कुक्कुट और दक्षिण कौशल के अनेक मंडल कर दिया करते थे। पीछे से ये मंडलगढ कहलाने लगे। प्रत्येक गढ में बहुधा (84) चौरासी गाँव रहने के कारण कभी-कभी उनको चौरासी भी कहते थे। चौरासियों के भीतर बहुधा बाहर गाँव का जुट्ट रहता था, उनको बारहों या तालुका कहते थे। प्राचीनकाल में मंडल का अधिकारी माण्डलिक कहलाता था, परंतु छत्तीसगढ़ में उसे मण्डल ही कहने का प्रचार हो गया था। अब भी किसी को शिष्टतापूर्वक सम्मान दिखलाना हो तो उस व्यक्ति का मण्डल शब्द कहकर आदर किया जाता है। पीछे से मण्डलों के अधिकारियों की पदवी ठाकुर या दीवान रख दी गई। तालुकों के अधिकारी पट्टकिल या पटैल कहलाते थे। वे पीछे से बरौनिढा दाऊ या तालुकेदार कहलाने लगे। यह ध्यान में रखने योग्य है कि प्रत्येक चौरासी में केवल 84 ही गाँव नहीं होते थे, किसी में कम किसी में अधिक रहते थे। इसी प्रकार बारहों में बाहर प्रसंगानुसार न्यूनाधिक गाँव रहते थे। कभी-कभी गाँव भी दो-चार पट्टियों में बँट जाता था, परन्तु हर एक पट्टीदार गौटिया बना रहता था। इसके विपरीत किसी के कई गाँव रहते थे। राजा, ठाकुर, दाऊ, इत्यादि उतनी ही भूमि खाम रखते थे जितनी उनके निस्तार के लिए आवश्यक होती थी। राजाओं के माण्डलिक नियमित कर तो दिया ही करते थे, परंतु जब कभी किसी से लडाई छिड जाती तो उन्हें सेना द्वारा और डीलन सहायता देनी पड्ती थी । इसी प्रकार जब कभी विशेष कार्य का प्रसंग आ पडता तो उसके लिए भी वे सहायता देने के लिए बाध्य थे यथा राजकुल में यदि कोई विवाह या उत्सव हुआ तो ठाकुरों इत्यादि का कर्तव्य था कि वे यथोचित सहायता दें।
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हैहय माण्डलिक
हैहयों के कई प्रतापी माण्डलिक थे। उनमें से एक कांकेर के राजा भी थे। प्राचीन समय में धमतरी कांकेरवालों ही की थी। गुरुर के खम्भ लेख से जान पडता है कि कि वह स्थान कांकेर के राजा बाघरराज के अधीन था, जो बारहवीं या तेरहवीं शताब्दी में राज्य करता था। प्राय: उसी काल में यश:कर्ण नाम का राजा जिले के उत्तर में सहसपुर में राज्य करता था। वह एक शिला लेख छोड गया है, जिसको तिथि 1182 ई. है। बालोद में भी एक अलग राजा राज्य करता था। वहाँ पर एक बहुत ही प्राचीन सती चीरा है, जिसके ( यहाँ दो पृष्ठ उपलब्ध नहीं हो पाए )
देश का प्रबंध अपने हाथ में लिया। सब से पहले कप्तान एडमन्ड्स ने चार्ज लिया, परंतु उसकी शीघ्र ही मृत्यु हो जाने के कारण कर्नल एग्न्यू ने आकर सन् 1825 ई. तक काम किया। आते ही कर्नल एग्न्यू को धमधा के गोंड राजा को शांत करना पडा। इसने बगावत मचा रखी थी। इस के पश्चात् उसने शासन प्रणाली का सुधार किया, जिससे लोगों में अमन चैन का संचार हो चला। जब सन् 1830 ई. में भोंसला राजा बालिग हुआ, तब फिर मरहटी अमल हो गया, परंतु सरकार ने जो प्रथा बाँध दी थी, वह स्थिर रही और शासन में कुछ विशेष गड़बड़ नहीं हुई।

ब्रिटिश राज
अंत में सन् 1854 ई. में जब भोंसलों का कोई वारिस न रहा, तब छत्तीसगढ़ पूर्ण रूप से अंग्रेजी शासन के अधीन हो गया। छत्तीसगढ़ में पहले तीन तहसीलें थीं, अर्थात् धमतरी, रायपुर और बिलासपुर । दुर्ग सन् 1837 ई. से भंडारे जिले में शामिल कर दिया गया था, परंतु 1857 ई. में नवीन तहसील बना कर छत्तीसगढ़ में फिर ले लिया गया। चार वर्ष पश्चात् सन् 1861 ई. में मध्य प्रदेश में चीफ कमिश्नरी स्थापित की गई, तब बिलासपुर रायपुर से अलग कर दिया गया और सिमगा में नवीन तहसील स्थापित की गई । तब से रायपुर चार तहसीलों का अलग जिला हो गया । यह प्रबंध सन् 1906 ई. तक चला आया। उस साल सम्बलपुर उडीसा में चले जाने के कारण छत्तीसगढ़ कमिश्नरी के शेष भाग का पुन: संशोधन किया गया और दुर्ग को पृथक जिला होने का गौरव प्राप्त हुआ। इस में पुरानी दुर्ग तहसील और कुछ भाग रायपुर, बिलासुपर और चांदा जिले से लेकर दो नवीन तहसीलें बेमेतरा और संजारों बनाकर शामिल की गयीं | नवीन दुर्ग में कोई ऐसा भाग नहीं आया, जिसमें सन् 1857 ई. के गदर के समय लोग बिगड रहे हों । यथार्थ में पुराने रायपुर जिले में सिवाय सोनाखान के उस समय कोई उपद्रव खडा ही नहीं हुआ। यहाँ की प्रज्ञा प्राय: सौ वर्ष से अमन-चैन से काल भोग करती आयी। आदि में राज्य प्रबंध ईस्ट इंडिया कम्पनी के हाथ में था, परंतु सन् 1858 ई. में ब्रिटिश राजकुलाधीन कर लिया गया । उस समय श्रीमती विक्टोरिया सिंहासन पर थीं। पहले कुल प्रबंध सरकारी अफसरों के द्वारा होता था, परंतु सन् 18 61 ई. में लेजिस्लेटिव कौंसिल अर्थात् अच्छे कानून बनानेवाली सभाओं का प्रचार किसी प्रदेश में किया गया। मध्यप्रदेश को जंगली और पिछडा होने के कारण यह अधिकार बहुत पीछे मिला अर्थात् सन् 1944 ई. में। इस सभा में छत्तीसगढ़ के लोग भी सम्मिलित हैं । विद्या का प्रचारी दिन ब दिन बढता जाता है, इसलिए लोग अपने हित और अनहित की बातें समझने लगे हैं। अब वह जमाना नहीं रहा, जिसका वर्णन हँसी के साथ किया जाता था। कि
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''वह है छत्तीसगढ़ देश। जहाँ गोंड हैं नरेश। नीचे गुरसी ऊपर खाट । लगा है चोंगी का ठाट ॥''

स्मरण रखना चाहिए कि जब पहले पहल मध्यप्रदेश की कौंसिल बनी तो छत्तीसगढ़ के एक गोंड नरेश ही अपनी योग्यता के कारण सभासद बनाए गये। इन कौंसिलों ने सर्वत्र योग्यता दिखलायी, जिसके कारण हाल ही में अधिक अधिकार मिलने का अवसर मिला। विक्टोरिया के नाती वर्तमान सम्राट पंचम जार्ज ने दिसम्बर सन् 1919 में जो स्वत्व की घोषणा की है उससे प्रजा को राजप्रबन्ध के नवीन अधिकार मिले हैं। प्राचीन प्रणाली के अनुसार कौंसिलों में सरकारी अफसरों की अधिकता रहती थी। अब प्रजा के चुने हुए प्रतिनिधियों की अधिकता है । मध्यप्रदेश की कौंसिल में 70 सभासदों में 53 प्रजा के चुने हुए हैं। इन्हीं चुने हुओं में से एक गवर्नर के सहाधिकारी और दो मंत्री बनाये गये हैं। गवर्नर के सलाहकार दो पंच हैं, जिनकी राय लेकर शासन किया जाता है। मंत्रियों के स्वाधीन कुछ शासन अंग रखे गये हैं, जिनकी जिम्मेदारी उनके ऊपर है, यथा शिक्षा-विभाग अस्पताल, बारीक मास्तरी, डिस्टिक्ट कौंसिल व म्युनिसिपालटी आदि का काम एक मंत्री को सौंपा गया है। उसकी मति के अनुकूल शिक्षा विभाग का डाइरेक्टर, अस्पतालों का इन्स्पेक्टर जनरल और चीफ इंजीनियर आदि कार्रवाई करते हैं ।इस नवीन अधिकार में प्रजा का स्वत्त्व भरा हुआ है। इसमें साधारण किसानों तक को सम्मिलित किया जाता है। सब लोग मिल कर कौंसिल के लिए प्रतिनिधि चुनते हैं। चुनाई में ऊँचे-नीचे का भेदभाव नहीं है। वर्तमान सभा के लिए छत्तीसगढ़ से एक प्रतिनिधि चुना गया है। कौंसिल में इस जिले से दो प्रतिनिधि चुने गए हैं, एक जमींदार व एक मालगुजार। नवीन प्रणाली की सफलता योग्य प्रतिनिधियों के चुनने पर निर्भर है। पक्षपातरहित कार्रवाई ही से देश का कल्याण होगा।


लोग
जनसंख्या
सन् 1911 ई. की गणना के अनुसार दुर्ग जिले की जनसंख्या 775,668 है। इनमें 373,159 पुरुष और 402,529 स्व्रियाँ हैं। सन् 1921 की गणना के अनुसार 354,495 पुरुष और 388,918 स्त्रियाँ, कुल 743,413 जन निकले। इन्फ्लुऐंजा के कारण वृद्धि के बदले सैकडा पीछे चार की घटी हो गई है। तहसीलवार जनसंख्या यों हैं- दुर्ग तहसील 246691, संजारी तहसील 261,500, बेमेतरा Bemetara  तहसील 267,497 । दुर्ग तहसील में 592 गाँव संजारी Sanjari में 1096, बेमेतरा में 656 हैं जिसमें संजारी में 102 और बेमेतरा में 94 मसाहती है। दुर्ग तहसील बहुत घनी बसी है। सन् 1891 ई. में प्रदेश भर में कोई ऐसा स्थन नहीं था, जो इसकी अपेक्षा अधिक घना रहा हो। इस जिले में केवल एक कस्बा है अर्थात् खास दुर्ग, जिसकी जनसंख्या 7048 है। अन्य तहसीलों के सदर मुकामों की संख्या 5000 से कम है, अर्थात् बालोद Balod की 2326 है और बेमेतरा की 1888 । इन गाँवों से बडे केवल तीन स्थान हैं अर्थात् धमदा Dhamdha (3059) नवागढ Navagarh (2434) गोर लोहारा Gond Lohara (डोंडी) (2355) ।

विपत्तियाँ
इस जिले में न तो बाहिर के आये हुए लोग बहुत हैं, न यहाँ के लोग अन्य जिलों में बहुत पाये जाते हैं। आस-पास ही के जिलों में थोड्रे-बहुत मिलते हैं। सन् 1891 से 1901 के बीच भयंकर अकाल पड्ने के कारण जनसंख्या में डेड लाख लोगों की कमी हो गई थी। वह अभी तक पूरी नहीं हुई। निस्संदेह मृत्यु की अपेक्षा जन्म अधिक हुआ करते हैं, परंतु एक अकाल ही से हानि नहीं होती, जनसंख्या की कमी अनेक आधि-व्याधि के कारण हो जाया करती है । दुर्ग जिले में मलेरिया अर्थात् जंगली बुखार से बहुधा अधिक हानि होती है। कभी-कभी दस-बीस हजार आदमी एक ही साल में मर जाते हैं। हैजा या मरही की बीमारी से भी बहुत लोग थोडे ही समय में नष्ट हो जाया करते थे, परंतु अब इतनी हानि नहीं होती, जैसी पहले हुआ करती थी। सन् 1913 में साढे तीन हजार लोग हैजे से मरे थे। अब स्वच्छता की ओर अधिक ध्यान दिया जाने लगा है, इससे मृत्यु में कुछ कमी हो चली है । हैजा, विशेष कर छत्तीसगढ़ में बहुत अधिक हुआ करता था। इसका मुख्य कारण यह था कि लोग तालाबों में स्नान करते, कपडे और ढोरों को नहलाते और फिर उसी का पानी पीते थे। जब से कुओं का उपयोग बढ चला है, तब से इन बीमारियों का कोप भी घट चला है, परंतु दो नये रोगों ने अब विध्वंस करना आरंभ कर दिया है। सन् 1907 से प्लेग आया, परंतु इससे इतनी हानि नहीं हुई, जैसी इन्फलुएंजा से हुई। पिछला रोग सन् 1918 में आया और दो महीना के भीतर 28 हजार जन उठा ले गया। इनके माता भी बडा घातक रोग है, वह बच्चों पर विशेष चोट करता है। सन् 1909 में इससे 1221 जन मृत्यु को प्राप्त हुए थे। भाग्यवश जो बच जाते हैं, वे बहुधा कुरूप हो जाते हैं। उससे बचने का सरल उपाय टीका है, जिसमें हर्र लगे न फिटकरी, क्योंकि सरकार टीका लगानेवाली को गाँव-गाँव भेज देती है। तिस पर भी लोग उसका गुण ग्रहण करने में आलस्य कर जाते हैं।
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धर्म
हिंदू पौने सात लाख अर्थात् सैकड्डा पीछे 90 है। इनमें से 88 हजार कबीर पंथी और एक लाख सतनामी है। गोंड इत्यादि, जो प्राकृतिक वस्तुओं को पूजते हैं, प्राय: 92,000 है। मुसलमान 7000 और क्रिस्तान हजार हैं।

कबीर पंथ Kabir Panth
सन् 1911 ई. में कबीर पंथियों की संख्या सारे हिंदुस्थान में नौ लाख थी । वे विशेष कर मध्यप्रदेश, बिहार, संयुक्तप्रांत, गुजरात और काठियावाड में रहते हैं। मध्यप्रदेश में 6 लाख कबीर पंथी हैं। उनमें से आधे छत्तीसगढ़ में रहते हैं। कबीर पंथ का मूल प्रचारक कबीर थे, जिन्होंने सन् 1488 और 1512 ई. के बीच इसको विशेष रूप से फैलाया। इस पंथ का मुख्य उद्देश्य अहिंसा, मूर्तिपूजानिषेध और सार्वजनिक समता है। कबीर के जन्म का पता नहीं लगता, पर इसमें संदेह नहीं है कि उनका पालन-पोषण एक जुलाहे के घर हुआ था। कहते हैं एक विधवा ब्राह्मणी के लड्का पैदा हुआ था। उसको वह लाज के मारे काशी के लहर तालाब किनारे डाल आयी । संयोग से नीरू जुलाहा अपनी नयी व्याहता स्त्री नीमा के साथ वहाँ से निकला । नीमा को उस नवजात बालक पर दया आयी, उसे उठा लिया और घर ले आयी। कबीर ने जहाँ अपनी जाति का संकेत किया है, वहाँ जुलाहा ही लिखा है, जैसे-- ओछी मति मेरी जाति जुलाहा हरि का नाम लह्यौ मैं लाहा।'
कबीर ने भजन, चुटकुले या साखियों द्वारा कट्टर से कट्टर हिंदू और मुसलमानों की खबर ली है। खरा कहने में वे कभी नहीं हिचकते थे। हजो करने में न्यून नहीं था। मूर्सिपूजा के विषय में आप कहते हैं- 'पाहन पूजे हरि मिलैं, तो मैं पुंजू पहार। ताते यह चाकी भली, पीस खास संसार।' ऐसे ही मुसलमानों से आप बोले, '' सुनति कराय तुरुक जो होता, औरत को का कहिये।'' फिर दोनों को समेट कर व्रत और रोजा आदि की हँसी यों कर डाली हिंदू बरत एकादसि साधे दूध सिंघाडा सेती । अन को त्यागै मन नहिं हटकै पारन करै सगोती ॥ रोजा तुरुक नमाज गुजारै बिसमिल बांग पुकारै। उनकी भिस्त कहाँ ते होइहै सांझे मुरगी मारै ॥ वह कबीर का उपदेश सुनकर अपनी लाखों की सम्पत्ति पुण्य करके साधु हो गया। इस त्यागी को कबीर ने वरदान दिया कि 42 पुश्त तक उसके वंशज इस पंथ की गद्दी पर आरूढ रहेंगे। यह गद्दी कवर्धा में है। बारहवीं पीढी में देह महतों का झगडा होने के कारण दो शाखाएँ हो गयीं । दूसरी शाखा ने बिलासपुर जिले के कुदरमाल में अपना स्थान जमाया। कवर्धा की शाखा ने अब दामाखेडे को सदर स्थान कर लिया है । मध्यप्रदेश के अतिरिक्त इस पंथ की बडी गद्दी बनारस में है। उसको कबीर चौरामठ कहते हैं। कबीर के कहे हुए भजन और साखियों के कई संग्रह पुस्तक रूप बन गए हैं । उनमें बीजक नाम ग्रंथ का कबीर-पंथियों में बडा आदर है।
सतनामी Satnami
छत्तीसगढ में सतनामी बहुत पाये जाते हैं। अन्यत्र कुछ थोडे से लोग दूसरी जातों के सतनाम धर्मानुगामी हैं । यह पंथ भी कबीर पंथ के समान हिंसा और मूर्ति विरोधक व जनसमता प्रचारक है । इसके माननेवाले साढे चार लाख आदमी हैं, उनमें से एक लाख इस जिले में रहते हैं।

जातियाँ
दुर्ग जिले में 3 जातियों की अधिकता है अर्थात् तेली और गोंड । आधी मनुष्य संख्या इन तीन जातियों में समा जाती है। सब से अधिक तेली हैं। उनकी संख्या 1 लाख बत्तीस हजार है अर्थात् सैकडा पीछे 17। एक लाख इक्कीस हजार हैं, ये सैकडा पीछे सोलह पडते हैं। गोडों की संख्या 1 लाख 15 हजार है अर्थात् सैकडा पीछे 15 । इनके पीछे आते हैं रावत (अहीर) 70 हजार, हलबा 49 हजार, कुरमी छत्तीस हजार, केवट तैंतींस हजार, माली 24 हजार, मेहरा 23 हजार, कलार १4 हजार और ब्राह्मण 13 हजार, फिर धोबी और लोधी बारह-बारह हजार, कोष्टी 11 हजार, नाई और लुहार आठ-आठ हजार, राजपूत 7 हजार और बनियाँ केवल तीन हजार हैं। मिहतर 500 से अधिक नहीं हैं।
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मुख्य घराने
इस जिले में प्रमुख वंश जमींदार लोगों के हैं। कुल 13 जमींदारियाँ हैं, जिनके अधिकारी गोंड हैं। केवल गुंडरदेही के जमींदार कवर और खुजी के मुसलमान हैं। अम्बागढ चौकी, पानाबारस, औबी और कोराचा के जमींदारों ने चांदा के गोंड राजा से अपनी जायदादें पायी थीं और डोंडी लोहारा, सिलहटी, बरबसपुर, गंडई और ठाकुरटोला वालों ने गढा मंडला के राजाओं से, शेष हैहयवंशियों के जमाने से चली आती हैं। इनका सविस्तार वर्णन सप्तम पट में मिलेगा। मालगुजारों में ब्राह्मण, कुरमी, तेली, राजपूत, बनियाँ और मरहठों के कुछ घराने प्रमुख हैं। ब्राह्मणों में कुसमी का मालगुजार अग्रगण्य है। इस घराने में भोंसला राजाओं के समय से परगनिहा की उपाधि चली आती है। नादोल और अँधियारखोर के घराने भी प्रतिष्ठित समझे जाते हैं । कुर्मी घरानों में मिम्होरी का अधिक जाहिर है। इसके हाथ कुछ वर्ष पूर्व सोनाखान की जायदाद आ गई है। इस घराने के मुखिया तुलाराम बी.ए. हैं। धानौद और कठोतिया के मालगुजार भी सादार है। खांडा का मालगुजार कुर्मी जाति का मुखिया समझा जाता है।
बनियों में जमूल के गोपालसिंह का घराना ऐतिहासिक है। उनका आजा खैरागढ राज्य का नेंगी था। राजा कहीं लूट न ले, इस डर से नंदकठी को भाग आया था। इसके लडके पीलासाब से और कमाइसदार से झगडा हो गया, तब वह नागपुर चला गया और वहाँ से लवन और सिहावा परगनों का ताहुतदार बन के आ गया। वह सिहावा को आबाद नहीं कर पाया, पंरतु लवन की काश्तकारी अच्छी तरह संभाली, उसमें डेढ सौ गाँव थे। घर के लोगों में बंटवारा हो जाने पर वंश का महत्त्व चला गया। गोपालसिंह के 4 ही गाँव रह गए हैं।
दुर्ग के मालगुजार गेंदसिंह, घनश्याम सिंह आदि भी उसी जात के हैं। मरहटी जमाने में उनके पूर्वज कमाइसदार और सूबेदार थे। देवकर में इसी जाति का ररुप्रसाद एक होशियार मालगुजार है। राजपूत घरानों में रहटादह के शिशुपालसिंह मुख्य हैं। गोंड मालगुजारों में बराबरबाँध की जायदाद के मालिक कलंदरसिंह सबसे बड्डे हैं। डाढी का गोंड घराना बडा प्रतिष्ठित समझा जाता है। उसको गोंड राजा और जमींदार बडा मान देते हैं। विवाह-शादियाँ उनसे बिना पूछे बहुधा नहीं करते । मरहठा घरानों में दो प्रमुख हैं अर्थात् अरमरी के दाजीबा भोंसले और धमतरी निवासी नत्थूजी जगताप । गोंसाइयों में भारो के रामसहायगिरि का नाम प्रसिद्ध है। ये मध्य प्रदेशीय कायदा कौंसिल के मेम्बर हैं। बठेना के बेलदारों ने सोनाखान के बागी जमींदार के पकङने में मदद दी थी, जिससे उनको ये गाँव माफी में मिले थे। बोली जिले की प्रचलित भाषा छत्तीसगढी हिंदी है। इसको कहीं-कहीं लरिया या खलटही भी कहते हैं । सैकडा पीछे 95 आदमी इसी को बोलते हैं। इसका नमूना चतुर्थ और पञ्चम पट में मिलेगा। जंगली भागों में गोंड लोग द्राविडी भाषा गोंडी बोलते हैं। इनकी संख्या 31 हजार है। प्राय: दस हजार मरहटी बोलते हैं।इस जिले में लिखे-पढे मनुष्य चौदह हजार हैं।
भूमि
किस्म जमीन
दुर्ग जिले में एक लाख बाईस हजार एकड सरकारी जंगल है । जमींदारी और मालगुजारी जंगल चरागन परती अमराई आबादी सड्क पानी इत्यादि का विस्तार आठ लाख 55 हजार एकड के लगभग है। जोती हुई जमीन का रकबा 19 लाख 81 हजार एकड है। जमीन की किस्में कन्हार, डोरसा, मटासी, भाटा, पालकछार और पटपर कछार हैं। काली या भूरी जमीन कन्हार कहलाती है, मटासी कुछ सफेदी या पिलाहट लिये रहती है, डोरसा आधी कन्हार और आधी मटासी का मिश्रण है। भाटा हलकी और पथरीली जमीन होती है। पाल कछार नदियों के किनारे की जमीन बडी उपजाऊ रहती है। पटपर कछार रेतीली होती है। विविध मौकों के अनुसार धनहाई जमीन के नाम बहरा, गभार, डड्हा, टांगर, रसनहा और पंजरहा रख लिए गए हैं । बहरा झिलान को कहते हैं, गभार समान, परंतु जरा नीचा रहता है । डंडहा ढंडुकीला होता है और टांगर ऊँचा-नीचा रहता है। आबादी के पास के खेत रसनहा कहलाते हैं। उनमें गोबर आदि का रस आता है, इसलिए उपजाऊ होते हैं।
पंजरहा तालाबों के पांजर व बाजू में रहने से उनको पैठ का पानी मिलता रहता है। मौकानुसार गेहूँ आरी जमीन के नाम मामूली, टिकरा और भरकीली रख लिये गए हैं। ऊँची नीची जमीन को टिकरा कहते हैं। जिस जमीन में गड्ढे आदि रहते हैं, उसे भरकीली कहते हैं। समान खेतों को मामूली कहते हैं। बगीचे के मौके की जमीन बाडी कहलाती है, जिसमें पानी दिया जाता है, उसे बाडी आबपाशी कहते हैं। बेमेतरा तहसील की जमीन सब से उत्तम है। वहाँ की कन्हार जमीन में धान के सिवाय गेहूँ-चना भी उत्पन्न होता है। मटासी में धान अच्छा पैदा होता है। डोरसा जमीन पर कन्हार के समान धान की फसल कटने के कुछ दिन पूर्व उरद मूंग, तेवरा के किस्म का दूसरा अन्न, जिसे उतेरा कहते हैं, दिया जाता है। भाटा जमीन में कोदों कुटकी ही होती है। पाल कछार ओर पटपर कछार का रकबा बहुत कम है। कन्हार जमीन पीछे 35 अंक है, डोरसा 46, मटासी 13 और भाटा 6। फसलें इस जिले में मोटे हिसाब से 6 आने में धान बोया जाती है, 3 में कोदों कुटकी, 2 में गेहूँ-चना, 1 में उड्द मूंग, डेढ में अलसी तिल्ली और में दीगर फसलें । गन्ना करीब साढे तीन सौ एकड में बोया जाता है। 1906-07 में इस जिले की फसलों की कीमत 3 करोड रुपया समझी गई थी, परंतु अब दुगनी हो गई है। धान बियासी की पुरानी रीति से बोया जाता है अर्थात् उसे पहली घना बो देते हैं, फिर पौधा निकलने पर बिरल करने के लिए हल चला देते हैं। इससे बीज का बहुत नुकसान होता है। रोपा धान लगाना अब शुरू हो गया है, इससे बहुत फायदा पहुँचेगा। इस जिले में चावल बहुत खाया जाता है। विशेष कर बासी खाने की बडी चाल है और अनाजों का जैसा गुण व उपयोग होता है, वह पंडित कपिलनाथ की निम्नलिखित कविता से झलक पडेगा.
तिल कहै मैं कारी जात, मैं बरिहाँ अँधियारी रात।
बर्रे कहे मैं कटहा जात, छिरिया खात न गरुआ खात।

- मसुरी कहे मोर पेडू झिथरी, दरे छरे में दिखां सुंदरी।
राहिर कहे रहरिटिया खास, बिनकौले ना मिठास।
बटुरा कहे मैं लाँव, रोवत लैका का भुरियाँव।
तिवरा कहे मैं भाभर भोर, गुलगुल भजिया होत है मोर।
उरिद कहे मोर मेघई नाम, मैं ही बसाओँ गमई गाँव।
मोरे चकरीं मोरे पहीत, मैं बैठारों समधी सहित।
ए देहजरी सहै ना जाय, बेडला अर्सी चले रिसाय।

उरिद के पीठी असीं के तेल, दूनों ताई में होय बहपेल।
चुर चुर बरा गये उपलाय, जब समधिन के मन मां आय।
चना कहे चक्कवे कहायों, डारा पाना सबै खबवायों ।
बारेपन में मूड मुड्डायों, भर ज्वानी में फूल
एक साल में एरिस ठुकाल, गेहूँ चना भट्टन बेहाल।
गेहूँ गुसैंया सर गये। चना गुसैंया जी गये।
कुटकी कहै मैं तालम तूल। मोर भात कवल कस फूल।
कांगा मड्ला ज्वांर बाजरा हम चारों के भैयाचारा।
जोढरी कहै मैं सब ले होन। कोला मोका दिहीन ।
माथे फूलों पांजर बहुते खाय तो कुतरक धरों।
अण्डी कहै मोर तेल गढार। मोर बिन गाड्डा परै गुहार।
कादों कहे मैं सबले बेस, मोर बिना न रहहै देस ।
धान कहे मैं एकई धना, सोन के डांडी रूप के फना।
सरसों कहे सरसोंबवा कहायो, रोग राग सब दूर बहायों

खाद
खाद और आवपाशी के फायदे सब लोग समझने लग गए हैं, पर सिवाय बरसात के गोबर और राख कूडा-कचडडा के दूसरी खाद का उपयोग नहीं करते । खाद की कमी होने के कारण केवल धान के खेत ही खाद पाते हैं, दूसरे खेतों को केवल फसल के अदल-बदल या कटुआ का संहारा रहता है। कटुआ एक प्रकार का जंगली पौधा होता है, जो खेतों में बहुत उगता है। लोगों का विश्वास है कि उससे खेतों को फायदा पहुँचता है।
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आबपाशी
आबपाशी के लिए कई गाँव में तालाब हैं और हर साल बढते जाते हैं। तिस पर भी अठारह बीस हजार एकड ही को पानी दिया जाता है।इस जिले में प्राय: साढे तीन हजार तालाब और 8 हजार कुएँ हैं। यदि इनका अच्छी तरह उपयोग किया जाए तो बहुत अधिक रकबे का सिंचाव हो आता है। सन् 1907-08 से 1909-10 तक जब तालाबों की तादाद करीब दो हजार ही थी और कुओं की आधे से कम, तब आबपाशी का रकबा 42 हजार से लेकर 63 हजार एकड था। इस विषय में सरकार की ओर से बहुत सहायता दी जा रही है। गरगहतन, खापरी, भरोदा टोला, संजारी, मोरिद, और सोरली में सरकारी तालाब खुदवा दिए गए हैं। इसके सिवाय तांदुला नहर भी तैयार की गई है, जिससे प्राय: 1 लाख एकड की आबपाशी हो सकती है। इस नहर से दुर्ग और रायपुर दोनों जिलों को फायदा पहुँचता है, परंतु उससे दुर्ग जिले के बहुत से हिस्से की रक्षा होती है। उसमें दो तालाब शामिल हैं जिनमें सूखा और तांदुला नदियों की धाराएँ, जिनका संगम बाँध से करीब एक मील नीचे है, घेर दी गई हैं। पूर का ज्यादा पानी एक ऐसी पहाडी की आगे बढी हुई चट्टान से निकाला जाता है, जो कि दो दरों को विभाजित करती है और दोनों तालाब नाले के ऊपरी हिस्से पर एक गहरी नहर के द्वारा, जो कि इस पहाडी को काट कर जाती है, मिला दिए गए हैं।
ढोर-बछेरू
खेती में बैल और बोदे काम में लाये जाते हैं। बहुधा बसलदेवा लोग उत्तर की ओर से बोदे बेचने को इस तरफ लाते हैं। मवेशियों का सब से बडा बाजार रानीतराई का है। खेती की मवेशी के किसाब से एक जोडी को 11 एकड जमीन जोतनी पड्ती है। सन् 1906-07 में बैल दो लाख, गायें पौने दो लाख, बोदे बासठ हजार, भैंस सत्तरा हजार, भेडा-भेडी चौंतीस हजार, बकरा. बकरी तरह हजार, और घोडे-टट्टू साढे पाँच हजार थे। बैल भैंसों की तादाद अब बढू गई है, पर बकरा बकरी, भेड्डा-भेड्डी की बहुत कम हो गई है। इनकी कीमत भी कई गुना बढ गई है। मवेशी की नस्ल अच्छी करने के लिए सरकार की ओर से एक बेलवृद्धि शाला रुआबाँधा में खोली गई ' है और एक पानाबारस जमींदारी के मोहाला ग्राम में है। ऐसे ही गडई और ठाकुरटोला में भी हैं। अच्छी चराई करने के लिए मोहाला ग्राम में बीड रखाई गई है।
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जंगल
जंगल जमींदारियों में ज्यादा है अर्थात् 526 वर्ग मील। मालगुजारी जंगल व घास का रकबा 458 वर्ग मील है, सरकारी जंगल 193 वर्गमील दक्षिण की ओर है और रायपुर डिवीजन के आलोद और धमतरी रेंज में शामिल है। जंगलों में इमारती लकडी अच्छी नहीं है। सरकारी जंगल की आमदनी ' 30,000 एक तक कभी-कभी हो जाया करती है। लोहारा, अम्बागढ चौकी और पानाबारस जमींदारियों के जंगलों में पहले बहुत अच्छी लकडी थी, परंतु अब अच्छे अच्छे झाड कट चुके हैं। लहसपुर लोहारा और गंडई में साल या सरई की बहुतायत है। लाख का प्रचार पानाबारस और कोरांचा जमींदारी में किसानों द्वारा किया जा रहा है। इन जंगलों में कुसम के झाड बहुत हैं। इनकी लाख उत्तर गिनी जाती है। साल और सागौनु के सिवाय अन्य झाडु, जो मामूली तौर से जंगल में मिलते हैं, वे ये हैं--हर्रा, आँवला, तंदू साज, कोहा, बहेरा, कर्रा, धौरा, लेंडिया, तिंसा, बीजा, भिरो, शीशम, कुसुम, हल्दू, खैर, बबूल, रोहनी, बेल, कैथा, घोटिया, गूलर, बड, पीपल, पाकर, मैनहर ठेलका, कुर्रु, पलास, धामिन, इत्यादि।
जंगली जानवर
बनचरों में बाघ से लेकर मूसा तक का शिकार किया जाता है। जंगलों में भालू, रेडवा, हुंडरा (भेडिया), तेंदुआ, चीता, बरहा (सुअर), नेवरा, बेंदरा (बंदर) कोगावा (सोनकुत्ता), लमहा (खरगोश), खेखरी (लोमडी ) सांभरी, रोझ, खुरारी (गिलहरी), हिरण, चीतल, चिंकारा, चारसिंगा, बनबिलाव, कोलिहा (सियार) आदि बहुत पाये जाते हैं।
खाती
डोंडी लोहारा जमींदारी के किलेकोंडा, उंगारा, हिरकापार इत्यादि स्थानों में लोहे की खान हैं, दल्ली पहाडी सात माल तक उसी से भरी हुई है। गंडई जमींदारी के मगरकुंड गाँव में ठाकुरटोला के चतराला, कुंवरी और बसंतपुर में और बरारबाँध के पास भी लोहे की धाऊ बहुत है, परंतु दल्ली के समान अधिकांश लोहे वाली धाऊ कहीं नहीं है। संजारी तहसील में लोहा बनाने फी कई भट्ठियाँ भी हैं। टाटा कंपनी मैने डोंडी लोहारा जमींदारी के 12 गाँवों में धातु निकालने का ठेका लिया है। दुर्ग तहसील के सकोसा गाँव में पत्थर की खदान है। कुम्हारी में जल्की पत्थर फर्श के योग्य मिलता है । किलेंकोडा में एक प्रकार का नर्म पत्थर मिलता है, जिससे प्याले बनाये जाते हैं। गंडई और ठाकुरटोला जमींदारी में एक प्रकार की लाल धाऊ मिलती है, जिस को सलई की गोंद मिला कर धूप देने के काम में लेते हैं। सिवाय इसके तेल व गोंद में मिलाकर लकडी में तथा देने में बरसाती पानी व दीपक से हानि नहीं पहुँचती। इससे धङडे भी जाते हैं।
व्यवसाय
खेती
इस जिले में पौने आठ लाख जनों में से पौने पाँच लाख मर्द व सिन्रियाँ स्वयम् काम करती हैं। काम करने वाले पुरुष और स्त्रियों की संख्या बराबर है। शेष 3 लाख जन दूसरों के आश्रित हैं। इस जिले में सब से बडा भारी व्यवसाय खेती-बाडी है। इससे पौने सात लाख जन का पालन-पोषण चलता है, जिसमें सवा चार लाख स्वत: काम करते हैं। मजदूरी के काम में स्त्रियाँ पुरुषों की अपेक्षा कुछ अधिक पायी जाती है। हरवाही और चरवाही के कामों में पुरुषों की अधिकता रहती है। हरवाहे, चरवाहे और मजदूर, जो खेती से पलते हैं, उनकी संख्या सवा लाख है। कृषि व्यवसायियों में भाजी, तरकारी, फूल, पान पैदा करनेवाले भी शामिल हैं, जिनकी संख्या 5 हजार है। इसी तरह लगान आदि वसूली करनेवालों की संख्या 5 हजार है। इस तरह से सैकडा पीछे 87 जन खेती पर निर्भर हैं।

रोजगार और पेशा
रोजगार और दिगर पेशेवाले एक लाख के करीब हैं । धंधा करनेवालों में भी एक तिहाई आश्रित जन अर्थात् बुडढे लड्के हैं। किसी-किसी रोजगार में स्व्रियों की अधिकता पायी जाती है, जैसे फुटाना, बेचना, तेल बनाना व बेचना, चूडी और पान बेचना । रोजगारियों में कपडा बिननेवालों की संख्या अधिक है, कोई 16 हजार जन इस काम में लगे हैं । लोहे के काम से 6 हजार लोग गुजर करते हैं। बाल बनानेवाले 5 हजार और जूते बनानेवाले 4 हजार हैं। चूडी और मिट्टी के बरतन बनानेवाले तीन-तीन हजार हैं। लकडी, पत्थर और पीतल के कामवाले एक-एक हजार हैं। सिवाय इनके दस हजार जन खाद्य पदार्थों के बेचने से गुजर करते हैं। तीन हजार जन गाडी किराया इत्यादि से परवरिश पाते हैं। एक हजार का साहूकारी से, एक हजार का की दुकानदारी से, एक हजार का मनिहारी और दो हजार का अन्य छोटी मोटी वस्तुएँ बेच कर निर्वाह होता है । घरू नौकरी से 6 हजार की जीविका चलती है, इतने ही भिक्षुकी से पलते हैं । छुट्टा मजदूरी से 9 हजार का निर्वाह होता है। दुर्ग खास में पीतल के लैम्प और काँसे के बर्तन बहुत बनते हैं। पीतल और काँसे के बरतन नवागढ और धमदा में भी बनते हैं। कपडा बहुत करके नवागढ, दुर्ग, धमदा, पाटन, बालोद, देवकर, बेमेतरा, अर्जुन्दा, अरकार, भेड्नी में पनका लोग बुनते हैं । वह मोटा रहता है । डोंडी लोहारा, और गंडई जमींदारी में कुछ लोहा पुरानी गाँवटा ढब से बनाया जाता है। नवागढ में पत्थर की कटोरियाँ इत्यादि बनती हैं।
व्यापार
बेमेतरा तहसील का अनाज कवर्धा-सिमगा पक्की सड्क से भाटापारा या रायपुर भेजा जाता है। संजारी तहसील का कुछ माल धमतरी जाता है, पर अधिक राजनांदगाँव को जाता है। दक्षिण की जमींदारियों का भी माल राजनांदगाँव जाता है। बहुत करके चावल कलकत्ते को, गेहूँ और अलसी बंबई को, लाख मिर्जापुर को और हर्रा रायपुर और राजनांदगाँव को जाती है। आनेवाले पदार्थों में कपडा और सूत मुख्य है। ये राजनांदगाँव, नागपुर, अमरावती और हींगनघाट को पुतलीधर से आते हैं। अंग्रेजी कपड्डा व सूत बंबई से जाता है। शक्कर और गुड उत्तर हिंदुस्तान और रतनपुर से जाता है। घी जबलपुर जिले से कटनी होकर आता है। भंडारा और मंडला से पीतल के बर्तन आते हैं। यद्यपि कुल आने-जानेवाले माल का हिस्सा नहीं मालूम हो सकता, तब भी रेल द्वारा दुर्ग और भिलाई स्टेशन में आने-जानेवाले माल से जिले की उन्नति का कुछ पता लगा सकता है।
सन् 1902 में एक लाख 13 हजार मन माल पौने चार लाख कीमत का भेजा गया था और 1906 में इसकी तादाद दो लाख 27 हजार मन थी, जिनकी कीमत पौने नौ लाख रुपये थी। इसी तरह आनेवाले माल की कीमत पौने तीन लाख से आठ लाख बढ गई थी। इसमें कपडे-सूत का लेखा एक तिहाई पडता है।
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बाजार व मेले
नामी मेला केवल गंडई से 3 मील नर्मदाकुंड पर भरता है। यहाँ पर एक स्वाभाविक झरना है, जिसका पानी हरदम कुनकुना बना रहता है। मेला 30 साल बंद रह कर सन् 1907 ई. से फिर शुरू हो गया। उस साल वह 20 दिन तक रहा। यात्रियों की संख्या कोई 80,000 थी और 50 हजार रुपये का माल खप गया था। मवेशी की प्रदर्शनी भी वहाँ की गई थी और अच्छे जानवरों के स्वामियों को पुरस्कार दिया गया था। गंडई में मवेशी बाजार भी अच्छा भरता है। इसी तरह बेमेतरा तहसील में मरका, बदनेरा, खंडसरा, बेलरा, चारभाटा में मवेशियों के बाजार भरते हैं । इन बाजारों में बालाघाट के लालवर्ण और वारासिवनी और सागर के गढाकोटा और मंडला से ढोर बेचने को लाये जाते हैं। दुर्ग तहसील में मुख्य मवेशी बाजार रानीतराई अर्जुदा और उताई में भरते हैं। इन बाजारों में कांकेर व बस्तर रियासत और रायपुर, बिलासपुर और बालाघाट के जिले के मवेशी बिकने को आते हैं। बरहापुर, नवा तालाब, नगपुरा और पिनकापार मैं भी ढोर बिकने को आते हैं। संजारी तहसील में करही भदर और खैरथा बाजार है, जहाँ पर बस्तर रियासत के मवेशी बिकने आते हैं। अनाज के मुख्य बाजार दुर्ग, बोरी, उताई और खैरथा है । बहुतेरे किसान अपना अनाज बेचने को राजनांदगाँव ले जाते हैं, क्योंकि उन्हें वहाँ भाव अच्छा मिलता है। छोटे-मोटे साप्ताहिक बाजार 1114 हैं।
सडकें
बंगाल-नागपुर रेलवे Bengal-Nagpur Railway जिले के मध्यभाग से निकली है, जहाँ पर उसकी चौडाई सिर्फ 17 मील है। इसलिए जिले के रेलवे स्टेशन केवल दो ही हैं, अर्थात् दुर्ग और भिलाई। बडी पूर्वीय पक्की सड्क अर्थात् नागपुर-रायपुर । सड्क भी रेल की सडक के समान 18 मील ही जिले के भीतर पडुती है। जब रेल नहीं थी, तब यह सड्क बडा काम देती थी। दूसरी मुख्य सडकें ये हैं - (11) दुर्ग-बेमेतरा (47 मील) यह नंदकठी धमदा देवकर देवरबीजा होकर सिमगा कवर्धा सड्क में बेमेतरा में मिलती है। (2) धमधा-गंडई (21 मील), (3) पथरिया-कुम्हारी (16 मील), (4) सिमगा-कवर्धा (जिले के भीतर 29 मील), (5) खंडसरा-खमरिया (3 मील), (6) डोंगरगढ- पंडरिया, (7) मुंगेली-नांदघाट (13 मील), (8) रायपुर-बिलासपुर ( जिले के भीतर 11 मील), (9) दुर्ग-गुंडरदेही-बालोद (36 मील), (10) अर्जुदा- गुंडरदेही-राजनांदगाँव (23 मील, जिसमें से 19 मील जिले के भीतर हैं), (11) राजनांदगाँव-अंतागढ, यह सड्क देवरी, लोहारा और डोंडी से जाती है, जिले के अंदर उसकी लम्बाई 42 मील है, (12) राजनांदगाँव-मोहाला। (पानाबारस), यह सड्क अम्बागढ चौकी होती गई है (24 मील), (13) दुर्ग-नेवाई-उताई (8 मील), (14) राजनांदगाँव-देवकर (जिले के अंदर 16 मील) (15) माटापारा-चंदखुरी (3 मील), (16) घमतरी-मुरुमगाँव- कुसुमकसा चांदा जिले तक (63 मील), यह सड्क चरौद बालोद से जाति है और धमतरी-जगदलपुर सड्क में मिलती है । जिले के अंदर इसकी लंबाई 14 मील है। जिले की गिट्टी वाली सडकों की लंबाई 65 मील है और मुरुम वाली सड्कों की लंबाई 322 मील है । सालाना खर्चा निमित्त आजू-बाजू जो झाड लगे हैं, या लगाये जा रहे हैं, उन पर अब सालाना 1900 रुपये खर्च किया जाता है।
बाजार भाव
हर एक जिंस का बाजार भाव बहुत चढ गया है । नीचे लिखी तालिका से यहाँ की दो मुख्य जिंसों का भाव प्रकट होगा। दुर्ग जिला बनने के पूर्व का भाव रायपुर जिले के भाव के अनुसार लिखा गया है। रायपुर और दुर्ग के भाव में बडा फर्क नहीं हो सकता। साल 1 रुपये के कितने सेर चावल गेहूं 1861-64 (जब अमेरिका की लडाई का प्रभाव 48 56 नहीं पडा था) 1865 से 67 (लड्डाई के प्रभाव पडने पर) 14 26 1868-70 (1868 के अकाल का प्रभाव) 22 25 1871-73 34 43 1874-76 36 47 1877-79 (मद्रास का अकाल) 24 28 1880-82 35 32 १883-86 (राजनांदगाँव में रेल खुली) 26 29 1887-89 19 23 1890-92 (आसनसोल को रेल खुली) 22 20 1893-95 20 21 1896-1900 13 12 1901-05 14 15 1906-12 12 14 1912-16 911 10 १916-17 101 11 1917-18 9 8 1897 के अकाल में चावल का भाव 911 सेर और गेहूँ का 9 सेर था। हाल में अर्थात् मार्च, 1921 में चावल गेहूँ का भाव क्रमश: रुपए का 6 और 9 सेर ही है।

शासन
प्राचीन मालकाली प्रथा
राज्य-शासन में दो मुख्य विभाग किये जा सके हैं, माल और प्रबंध । हैहयवंशियों के समय में माल प्रणाली दूसरे ही प्रकार की थी। प्रत्येक गाँव की जमा अलग-अलग स्थिर नहीं थी, जब राजा को रुपया-पैसा, अनाज आदि को आवश्यकता होती थी, तब वे अपने सरदारों से माँगते थे और सरदार अपने मातहतों से वसूल करते थे। इसलिए गाँव की जमा का बँदोबस्त तालुका के मालिक के अधीन था और जमीन का लगान के हाथ में था। लडाई के समय में जितने सिपाही माँगे जाते थे, वे भी इन्हीं के द्वारा भेजे जाते थे। यह शर्त ही स्थिर कर ली गई थी कि अमुक गाँव के लोग यथावश्यक आदमी और सामान दें। मरहटों के जमाने में पटेल लोग गाँव की जमीन के दो भाग करते थे, एक चाल और दूसरी थोक । वर्षारम्भ में थोक जमीन की हैसियत के अनुसार अंदाज से लगान लगा दिया जाता था, परंतु चाल जमीन का लगान आनों में गिनकर जोड लगाया जाता था, फिर जो जमा गाँव से माँगी गई, उसको इतने आनों के बराबर समझकर हर एक खेत की जितनी हैसियत ठहराई जाती थी, उसी के अनुसार लगान बैठा दिया जाता था। ऐसा करने के पहले थोक का लगान कुछ लगान से घटा लिया जाता था। इस प्रकार के आना प्रमाण को खेत का ऐन या धारा कहते थे। पटैल या गौटिया गाँव के लगान को हर साल शोध करते थे और अपनी इच्छानुसार किसानों के खेतों की अदल-बदल कर देते थे। कोई हक स्थिर नहीं था। सिवाय इसके कि किसानों को नजर, घर, फड्नवीसी, दरदेहा, और परारपंडाई आदि देनी पडुती थी।
सरकारी बंदोबस्त
जब छत्तीसगढ सरकारी अमल में आया, तब नवीन प्रकार का बंदोबस्त किया गया। यह पहले कह चुके हैं कि दुर्ग जिला सनू 1906 में रायपुर बिलासपुर और चांदा जिलों के भागों से बना, इसलिए इसके कई हिस्सों का बंदोबस्त अलग-अलग समय में हुआ है। खालसा भाग का सबसे पहला नियमानुसार बंदोबस्त सन् 1862 ई. से लेकर सन् 1868 ई. के अंदर ह्यूविट साहब के द्वारा हुआ । उस समय सरकारी जमा 1,57,710 रुपये से, 2 ,44738 रुपये की गई थी। पहले किसानों के लगान का ठीक-ठीक पता नहीं लगा, नहीं तो जमा दुर्ग परगने में सैकडा पीछे 139 अंक बढ जाते । प्रथम बंदोबस्त 20 साल के लिए किया गया। दूसरा बंदोबस्त सन् 1883 ई. में शुरू किया गया, परंतु थोडा ही भाग पक्की रीति से करने के पश्चात् भूमि माप पूरी न होने के कारण शेष भाग का दस साल के लिये सरसरी रीति से किया गया। इस समय की जमा 3,29,369 रुपये स्थिर की गई। सन् 1887 ई. में दुर्ग तहसील व संजारी परगने के बंदोबस्त से जमा 3,62,117 रुपया हो गई। ३३ वर्तमान बंदोबस्त का काम सन् 1913 ई. में पूरा हुआ। वह भी बीस साला ३५ है। इस बंदोबस्त में जमा 5,90,135 रुपये हो गई है और
जमींदारी टकोली
0000  मिला कर कुल माल की आय 6,11,515 रुपये है। अन्य आमदनी ५ मालकाली के अतिरिक्त अधिक आमदनी आबकारी, इनकम टैक्स, | जंगल और रजिस्टरी से है। सब मिलाकर जिले की सालाना आमदनी प्राय: दस लाख होती है।
संपूर्ण बिलासपुर गजेटियर 1923 बिलासपुर वैभव पढ़ें इस लिंक से
अकाल
५ इस जिले में धान की खेती अधिक होती है। इसलिए जब कम वर्षा जा' होती है, तो वह शीघ्र सूख जाती है जिससे अकाल पडु जाता है । बहुधा पाँच छह साल में दुर्भिक्ष अपना रंग दिखला जाता है। प्राचीन अकालों का कहीं लेख नहीं मिलता, परंतु सबसे पुराने अकाल का पता सन् 1828-29 से लगता है। उस समय चावल का भाव 10 मन से घटकर 12 सेर फी रुपया आ गया था। फिर सन् 1834-35 में फसल खराब हुई थी, पश्चात् सन् 1845 ई. में | भी दशा खराब रही। इसके बाद सन् 1867-1869, 1878-79, 1878-83, 1886-87 और . 1895-96 में अकाल पीडा हुई। सन् 1896-97 के आदि में अति वृष्टि हुई थी, जिससे शिवनाथ नदी में सात बार भारी पूर आया और हर वक्त उसके किनारों के गाँव की फसल स्वाहा हो गई। इस वर्ष दीन पोषणार्थ 9 स्थानों में बडे-बडे काम खोले गए और गरीबों को रुपया बाँटा गया और भोजनालयों में पका हुआ भोजन दिया गया, तिस पर भी मृत्यु संख्या प्रति सहस्र 80 तक चली गई। इसके पश्चात् सन् 1899 ई. में अनावृष्टि के कारण इस जिले में क्या संपूर्ण प्रदेश में भारी अकाल पडु गया, तब सरकार ने इतने बहुत से काम खोल दिए कि इस जिले में सैकडा पीछे 44 जन को सहायता पहुँची । सडकों के काम के सिवाय कई बडे तालाब आबपाशी के लिए बनाये गये, बडे-बडे काम 20 स्थानों में खोल दिए गये, सैंकडों भोजनालय स्थापित कर दिए गए और घर बैठे दीनों को रुपया बाँटा गया, किसानों को बहुत सी तकावी द्वारा सहायता की गई और मालकाली की उगाही मुलतवी कर दी गई। इस प्रकार जिले की 15 साल की मालकाली की आय एक ही साल में लोगों के बचाने में खर्च कर दी गई। तब भी प्रति सहस्र मृत्यु संख्या 58 रही। इसका कारण यह था कि पानी कम होने से हैजा और अन्य रोग फैल गए थे। इन्होंने अनेक पीडित लोगों का संहार कर डाला।
सन् 1900-01 में भी दुर्ग तहसील की हालत शोचनीय रही, क्योंकि धान केवल दस आने बोया गया था। सन् 1902-03 में कम पानी होने के कारण अकाल ने फिर अपना झंडा फहराया। इसके पश्चात् कभी-कभी फसलें न्यूनाधिक हुईं, परंतु अकाल नहीं पडा। यहाँ के लोगों की आर्थिक व्यवस्था सामान्यत: अच्छी है, परंतु वे ऋण से मुक्त नहीं हैं।विवाह, सहकारी सभा-शादियों में और लोगों की नाई अधिक खर्च कर डालते हैं । पंडित कपिलनाथ से यथार्थ कहा है-- काढ मूस के ब्याह करायों गांठी सुक्कम सुक्का। सादी नई बरबादी भट्टगे घरभा फुक्कभ फुक्का ॥ पूँजी हर तो सबै गमागे अब काकर मूं तक्का ॥ टुटहा गाड्डा एक बचे है ओकरो नइये चक्का ॥ लागा दिन दिन बाढत जाथे साव लगावै धक्का। दिन ठुकाल ऐसे लागे है खेत परे हैं सुक्का ॥ लोटिया थारी सवो बिचागे माई पिल्ला भुक्का। छित की कुरिया कैसन बचि है अब तो छूटिस छक्का ॥ इसी व्यवस्था से बचाने के लिए सन् 1911 ई. में यहाँ पर सहकारी सभाएँ स्थापित की गयीं जिससे 1 रुपया फी सैकडा माहवारी ब्याज पर रुपया मिल जाता है, साव लोग बहुधा 2 रुपये माहवारी लेते हैं।इस जिले में 220 सभाएँ खुल गई हैं, हर एक में 50 से 60 तक मेम्बर हैं। लेन-देन की पूँजी सवा लाख से कुछ ऊपर है।
प्रबंध
जिले का मुख्य अधिकारी डिप्टी कमिश्नर है, वह जिला मैजिस्ट्रेट भी है। उसकी सहायता के लिए 3 एक्स्ट्रा अस्टिंट कमिश्नर रहते हैं, जो माल और फौजदारी का काम देखते हैं । जिले में 3 तहसीलें हैं अर्थात् दुर्ग, संजारी और बेमेतरा । हर एक तहसील में एक तहसीलदार और एक नायब तहसीलदार रहता है । मालकाली के सिवाय आबकारी, इन्कमटैक्स आदि की वसूली इन्हीं के जिम्मे रहती है। ये अफसर फौजदारी का भी काम करते हैं । इनके सिवाय 12 आनरेरी मैजिस्ट्रेट हैं, जो फौजदारी के तीसरे दर्जे के मुकदमे किया करते हैं। इनमें से बहुतेरे जमींदार हैं।
दीवानी
दीवानी के लिए एक सब जज और एक मुन्सिफ तैनात है। मुन्सिफी अदालत केवल बेमेतरा में है।
पुलिस
पुलिस विभाग का काम डिस्टिक्ट सुपरिंटेन्डेन्ट पुलिस देखता है। उसकी सहायता के लिए 5 इंस्पेक्टर, 27 सब इन्स्पेक्टर, 58 हेड कांस्टेबल, 230 कांस्टेबल और 3 सवार कांस्टेबल मुकर्रर हैं। जिले में 19 पुलिस थाने हैं, जिनका मुखिया सब इन्स्पेक्टर रहता है । वे ये हैं, दुर्ग तहसील में दुर्ग, धमदा, भिलाई, पाटन, रनचिरई और बेमेतरा तहसील में बेमेतरा, नवागढ, नांदघाट, सहसपुर लोहारा, गंडई और घेरला, संजारी तहसील में बालोद, गुरूर, डोंडी लुहारा, डोंडी, पिनकापार, अम्बागढ चौकी और मदनपुर । यहाँ कोई जेल नहीं है, यहाँ के कैदी रायपुर भेज दिए जाते हैं।
अन्य महकमे
आरोग्यता विभाग का काम सिविल सर्जन देखते हैं । यहाँ के जंगल और बारीक मास्टरी के अफसर रायपुर में रहते हैं। आबपाशी के एक्जीक्यूटिव इंजीनियर दुर्ग में रहते हैं। जमीन के कागजात तैयार करने के लिए इस जिले में 396 पटवारी हैं, जिनकी जाँच के लिए 20 रेवन्यू इन्स्पेक्टर, 2 असिस्टेंट सुपरिंटेन्डेन्ट और एक सुपरिंटेन्डेन्ट मुकर्रर हैं । रेवन्यू इंस्पेक्टर अपने-अपने हलकों में रहते हैं। दुर्ग तहसील में उनके 7 हलके हैं अर्थात् बोरी, भिलाई, कुथरैल, नन्दगठी, पाठर, करेला और गुंडरदेही । बेमेतरा तहसील में 6 हलके हैं अर्थात् नवागढ, मारों, खानन्दगाँव, देवकर, बहेरा, गंडई और सहसपुर लोहारा। संजारी में 6 हलके हैं अर्थात् चौकी, मोहाला, चिखली, बालौद, मंडेरा और गुरूर । आबकारी की देख-रेख डिस्टिक्ट एक्साइज अफसर करता है। उसकी सहायता के लिए 9 सब इस्पेक्टर नियत हैं। ये लोग स्टाम्प का भी काम जाँचते हैं। आबकारी की दुकानें 167 हैं। भट्टियों का प्रचार कई जमींदारियों में अभी बना हुआ है, परंतु धीरे-धीरे उनकी संख्या कम हो रही है। जिला निर्माण के समय शराब से पंद्रह हजार की आमदनी थी, अब वह चौगुनी हो गई है। अफीम से सत्तर हजार और गांजा से तेरह हजार थी, वह अब दोनों की दुगनी हो गई है। रजिस्टरी के लिए 3 सब रजिस्ट्रार हैं। ये दुर्ग, बेमेतरा और बालोद में रहते हैं । इनकी देख-रेख डिस्टिक्ट रजिस्ट्रार के अधीन है। दुर्ग और आदमाबाद में तारघर हैं। डाकघर जिले में 40 हैं।
डिस्टिक्ट कौंसिल आदि
मदरसा, अस्पताल, कांजीहाउस, घाट व छोटी-मोटी सडकों का प्रबंध डिस्टिक्ट कौंसिल करती है। हर एक तहसील में एक-एक लोक बोर्ड है तथा उत्तरीय और दक्षिणीय जमींदारियों के लिए भी एक-एक लोकल बोर्ड है। ये सब डिस्टिक्ट कौंसिल के अधीन हैं, जिसकी सालाना आदमनी ग्रांट मिला कर दो लाख होती है। पहले जिले में कोई भी म्यूनीसिपालिटी नहीं थी । दुर्ग खास नोटीफाइड एरिया था, उसको आमदनी करीब बीस सहस्र थी, परंतु अब म्यूनीसिपालटी कायम हो गई है और आमदनी 31 हजार हो गई है। जिले में कुल 171 मदरसे हैं, जिनमें तेरह हजार छात्र शिक्षा पाते हैं। इनकी देख-रेख के लिए दो डिप्टी इन्स्पेक्टर नियत हैं। अस्पताल 7 हैं अर्थात् दुर्ग, बेमेतरा, दालोद, पाटन, गंडई, गुंडरदेही और अम्बागढ चौकी । इनके सिवाय आदमाबाद और भाटा गाँव में नहर महकमे के अस्पताल हैं। इनकी देख-रेख सिविल सर्जन करते हैं। ढोर अस्पताल दुर्ग, बालोद और बेमेतरा में हैं । कांजी हाउस 68 और घाट 33 हैं। सडक और इमारतों की देख-रेख लोकल फंड इंजीनियर के द्वारा होती है।
कुष्ठाश्रम
इस जिले में एक मिशन संचालित कुष्ठाश्रम बेमेतरा तहसील के चंदखुरी ग्राम में है । वहाँ 400 कोढी रहते हैं।इस आश्रम को सरकारी सहायता मिलती है। प्रदेश भर में यही एक कुष्ठाश्रम है। कि

दर्पणी
000000 चौकी- पहले यह जमींदारी चांदा जिले में थी, पर अक्टूबर { 1907 से यह और पानाबारस, कोराचा और आंधी की जमींदारियाँ दुर्ग जिले की संजारी तहसील में सम्मिलित कर दी गयीं । अम्बागढ का दक्षिणी ' भाग जंगली है, बाकी खुला है। उसके ईशान कोण में आबादी अच्छी है और गाँव भी बडे-बडे हैं। शिवनाथ नदी उसके भीतर होकर बही है और वायव्य की ओर जमींदारी की सीमा बनाती हुई निकल गई है। जमींदारी की डोंगर नदी इसी शिवनाथ में मिल गई है। चौकी खास शिवनाथ के पूर्वीय बाजू पर बसी है। यही जमींदारी का मुख्य गाँव है । जमींदारी का विस्तार 250 वर्गमील है। आम 232 हैं, जिनमें से 184 आबाद हैं। कुछ जनसंख्या 32,867 है। . जमींदारी खटुलवार गोडों के हाथ में प्राय: 900 वर्ष से बतलाते हैं, परंतु कोई सनद नहीं है, जिससे पूरा पता लग सके । कहते हैं, जमींदार के पुरखा मंगल से आये थे और चांदा के गोंड राजा ने उन्हें यह जागीर लगा दी थी। कोटगल जमींदारी भी पहले इसी चौकी में शामिल थी, इस का वीरगाँव तालुका कुछ ' वर्ष पूर्व गेवरधा में चला गया। वर्तमान जमींदार लाल इंद्रशाह है। वे चौकी में रहते हैं, जो जमींदारी में सबसे बडा गाँव है। उसकी जनसंख्या 1663 है। इस जमींदारी में गोंड अधिक बसते हैं। जमीन आधी से कुछ कम जोत में है, स्यारी अधिक बोई जाती है, विशेषकर चावल, कोदों और कुटकी । उन्हारी में अलसी अधिक होती है। . गत बंदोबस्त के समय इस जमींदरी की आय 25398 स्थिर हो गई थी। इसमें से 2000 टकौली व 869 अबवाब लगाए गए थे। इसकी मियाद ' 30 जून सन् 1919 तक थी। अम्बागढ जमींदारी बंगाल नागपुर रेलवे के पास पडुती है। राजनांदगाँव से जो सड्क मोहाला जाती है, वह चौकी पर ही से गई है। इस रास्ते से चावल, अलसी आदि भेजी जाती है। बाँधा में एक बडा बाजार भरता है, जिससे उस गाँव का नाम बाँधा बाजार पड गया है। चौकी बालौद से 34 मील व दुर्ग से 49 मील पर है। इस जमींदारी में चौकी गिलहरी, अंतरगाँव और कौडीकसा में प्राइमरी शाखाएँ हैं। चौकी में पुलिस थाना, डाकखाना और अस्पताल भी है। मील या एकड मनुष्य संख्या 1395 । दुर्ग तहसील के दक्षिण में दुर्ग से प्राय: 17 मील पर है । यहाँ हर सोमवार व मंगलवार को ढोर, चावल व कपडे का बडा बाजार भरता है। यहाँ डाकखाना, प्राइमरी शाला व पुलिस थाना है।
आदमाबाद Adamabad
यह नवीन गाँव बालोद से 3 मील पर तांदुला नहर पर काम करने वालों के लिए बसाया गया है। इसका नाम नहर के इंजीनियर आदम साहब के नाम पर रख दिया गया है।
ओड्र बाँध Odra Dam
यह एक आठ गाँव का छोटा सा तालुका है, जो दुर्ग की सीमा से केवल पाँच मील पर नांदगाँव रियासत के भीतर पड्ता है । क्षेत्रफल केवल १1 वर्गमील है। यह डोंगरगढ के जमींदार के वंशजों को माफी में दिया गया है। जब डोंगरगढ का जमींदार भोंसलों के विरुद्ध उठ खड्डा हुआ, तब उस की जमींदारी भोंसलों ने छीन ली । जमींदारी का अधिकांश खैरागढ और नांदगाँव के राजाओं को दे दिया गया, क्योंकि उन्होंने भोंसलों को सहायता दी थी। सालाना आमदनी लगभग 4500 रुपये है। यहाँ एक सुविस्तीर्ण एवं सुंदर तालाब है, जो कि ओडों का खुदवाया हुआ है। इसी से इसका नाम पडा है। किंवदंती है कि एक बार कोई राजा एक ओडिन पर आसक्त हो उसे छलने का प्रयत्न करने लगा, इस पर वह स्त्री ओडार बाँध को भाग आयी, पर जब राजा ने वहाँ भी उसका पीछा न छोडा, तब वह जल कर मर गई। गोडों में उससे स्मरणार्थ प यह तालाब एक रात में बना डाला और फिर उस गाँव को छोडकर कर चले ' गए। राजनांदगाँव के राजा महन्त बलरामदास King Mahant Balaramdas of Rajnandgaon को मछलियाँ पालने का बड्डा शौक था, इसलिए उन्होंने पच्चीसेक वर्ष पूर्व मछलियाँ पकडने के लिए फुड्वा दिया। तालाब में फूटते ही जलप्रवाह ने एक नाला बना डाला और शिवनाथ नदी में पूर आ गया। अब तालाब की फिर से मरम्मत कर दी गई है।
औधी जमींदारी Aundhi zamindari
यह दुर्ग जिले के दक्षिण में एक छोटी सी जंगली तथा पथरीली जमींदारी . है। कुल रकबा 81 वर्ग मील है, जिसमें से 59 वर्ग मील तो केवल जंगल ही है। यहाँ के जंगलों में सागौन व शीशम बहुत कम होता है। जमींदारी के बीचोबीच खेती होती है, पर यहाँ भी गाँव छोटे-छोटे और चारों ओर जंगल . से घिरे हुए हैं। यहाँ की जमीन रेतीली और पीली किस्म की है। बीच-बीच में काली काबर भी मिलती है। जमींदारी का मुख्य स्थान औधी केवल 18 घर का मौजा है, जिसमें राजगोंड और हलवा रहते हैं । जमींदारी में 43 गाँव हैं, पर आबाद केवल 20 ही हैं। जनसंख्या 2158 है। यह जमींदारी पहले पानाबारस में शामिल थी, पर कुछ झगडा होने पर अलग हो गई, पर जब औधी का कोई वारिस न रहा तो फिर से पानाबारस के जमींदार को मिल गई। पानाबरस और औधी के बीच में कोराचा की जमींदारी आ गई है। कहते हैं कोराचा भी पहले एनाबारस जमींदारी का भाग था, जो अब अलग हो गया है। यह जमींदारी बिल्कुल विरल बसी है। यहाँ के मुख्य निवासी माडियाँ गोंड हैं। सारी जमींदारी में कोई बडा गाँव नहीं है। सदर मुकाम में तो केवल . 75 मनुष्य रहते हैं। कुल रकबे के नवें हिस्से में खेती होती है। चावल मुख्य फसल है, यों तो अलसी व कोदों-कुटकी भी थोडी-बहुत हो जाती है। पिछले बंदोबस्त के समय, जो कि 30 जून 1919 को समाप्त हो गया, इस जमींदारी की कुल आमदनी 833 रुपए कूती गई थी और 50 टकौली व 27 अबवाब स्थिर किए गए थे। औधी बालौद से 90 मील तथा दुर्ग से 124 मील पर है। औधी में डाकखाना है व एक छोटा सा बाजार भी भरता है। सारी जमींदारी में एक भी स्कूल नहीं है।
संपूर्ण बिलासपुर गजेटियर 1923 बिलासपुर वैभव पढ़ें इस लिंक से
कोराचा जमींदारी Koracha zamindari
यह जमींदारी अत्यंत जंगली और विरल बसी हुई है। इसमें केवल एक नदी कोटरी पूर्वी छोर में बहती है। दक्षिण भाग तो जंगल से भरा पडा है । यहाँ-वहां कुछ थोडे से गाँव बसे हुए हैं । पूर्वीय हिस्सा निरा पथरीला है और जंगल का होना और न होना बराबर ही है । केवल पहाडियों के बीच की घाटियाँ खेती के योग्य हैं। जंगल में बीजा के वृक्ष बहुत हैं, शीशम व खाज भी थोडा-बहुत है। जमींदारी में यों तो सैंकडों नाले हैं, पर गर्मी से वे सूख जाते हैं । जमींन रेतीली है। चावल व अन्य खरीफ विशेष बोई जाती है। जमींदारी में 77 गाँव हैं, जिसमें आबाद केवल 41 हैं । जन संख्या 388 4 है। कोराचा पानाबारस जमींदारी का हिस्सा था, पर किसी कारण अलग हो गया। वर्तमान जमींदार निजामशाह बापू हैं। कोराचा में गोंड ही अधिक बसते हैं। सारी जमींदारी में एक भी बडा गाँव नहीं है। मानपुर कोराचा का सदर मुकाम है। वहाँ सन् 1911 में केवल 286 मनुष्य थे। कुछ रकबे के छठवें भाग में खेती होती है। जमीन इतनी हल्की है कि एक साल पानी न गिरने से अकाल पडु जाता है। गत बंदोबस्त के समय कोराचा की आमदनी 2930 लेखी गई थी, जिसमें 145 टकौलो व 80 रुपये अबवाब के निश्चत कर दिए गए थे। जो कुछ रोजगार बाहर से होता है, सभी प्राय: राजनांदगाँव स्टेशन से होता है। राजनांदगाँव मानपुर से प्राय: 64 मील पर है । मानपुर से होती हुई एक सडक अमतरी व बालौद का गई है। मानपुर बालौद से 60 मील है, दुर्ग से 94 मील व अमतरी से 84 मील पर है। यहाँ एक प्राइमरीशाला और पुलिस थाना है।
खारून नदी Kharun River
दुर्ग में शिवनाथ को छोड दूसरी बडी नदी खारून है। यह संजारी तहसील के पेटिचुआ गाँव के एक तालाब से निकलकर रायपुर जिले में चली गई है और बेमेतरा तहसील के जमघाट गाँव के पास शिवनाथ में मिल गई है। शिवनाथ से मिलने के पहले खारून रायपुर व दुर्ग जिले की बीच की सीमा बना कर बही है । संगम स्थान पर सोमनाथ का एक मंदिर है, जहाँ हर साल मेला भरता है। रायपुर शहर से वह 4 मील पर है। यहीं से वहाँ पानी के बम्बा ले गए हैं। इसकी कुछ लंबाई 75 मील है।

खुज्जी जमींदारी Khujji zamindari
संजारी तहसील में एक छोटी सी जमींदारी है। इसकी जमीन उत्तर में काली और शेष पथरीली है। कुल गाँवों की संख्या 33 है। सब आबाद हैं। जनसंख्या 8685 है। जमींदारी में छोटे-मोटे नाले कई हैं, परंतु तालाबों की संख्या कम है। यहाँ बहुधा अकाल पड जाता है, इसलिए आवपाशी के लिए तालाबों की विशेष आवश्यकता है। कहते हैं डेक सौ वर्ष पहले शेरखां बहादुर नामी व्यक्ति ने एक गोंड राजा को नागपुर के भोंसला रघुजी के आक्रमण रोकने में बडी सहायता दी थी, इसलिए उस राजा ने यह जागीर इनाम दे दी। वर्तमान जमींदार नियाजुद्दीन खाँ हैं, ये विलायत तक पढ आए हैं और मध्यप्रदेश की कानून सभा के मेम्बर हैं। खुज्जी बालौद से 32वा दुर्ग से 35 मील पर है।इस जमींदारी में खुज्जी को छोड और कोई दूसरा बडा गाँव नहीं है। सन् 1911 में खुज्जी की आबादी 855 थी। जमींदारी का प्राय: आधा रकबा उठा हुआ है। जमीन कन्हार, डोरसा, मटासी, भाटा सभी किस्म की है, पर मटासी सबसे अधिक है । फसलों में चावल, कोदों, कुटकी, मूंग, मटर, अलसी और लाख (तिवरा) मुख्य हैं। सन् 1901-02 के बंदोबस्त के समय इस जमींदारी की आय 8726 रुपये लेखी गई थी और उस ' 'पर 2757 रुपये सरकारी टकौली व 330 अबवाब लगाए गये थे। इस जमींदारी में कोई पक्की सडक नहीं है। व्यापार विशेष कर राजनांद गाँव से होता है। यहाँ एक प्राइमरीशाला व एक ब्रांच डाकखाना है।
गंडई जमींदारी Gandai zamindari
यह बेमेतरा तहसील में है। इसका क्षेत्रफल 151 वर्ग मील और ग्रामसंख्या 88 है। 5 गाँव वीरान हैं। जनसंख्या 18,635 है। जमींदारी का पूर्वी हिस्सा तो उपजाऊ है, पर पश्चिमी गंडई खास से लेकर अंत तक पहाडी है। इस भाग में से बंजर नदी बही है, दूसरी सुरही नदी जमींदारी के मध्य में बहती है। पूर्व की जमींन डोरसा है, पश्चिम में भाटा विशेष है। जंगली गाँवों में प्राय: कोदों कुटकी पैदा होती है, परंतु घाटियों में दोनों फसलें होती हैं। बंजर नदी इसी जमींदारी के बंजरपुर नामक गाँव से निकली है । यहाँ का जमींदार धुरगोंड है। कहते हैं कि इस वंश के पूर्वत्र लिंगा दरबी को प्राय: 600 वर्ष पहले गढा मंडले के राजा से जागीर मिली थी। इसी के वंश में मुखो ठाकुर नामक जमींदार हुआ। उसने अपनी जमींदारी अपने तीन लडकों में बाँट दी । इस तरह तीन जमींदारियाँ एक तो यही, दूसरी सिलहटी और तीसरी बरबसपुर बन गयीं । भोंसलों के समय में इस जमींदारी पर भी चढाई हुई थी, पर जमींदार ने कवर्धा भाग कर अपनी रक्षा की थी। पहले खोलवा परगना गंडई जमींदारी में था, परंतु सुआ नचाई नेंग में खैरागढ के राजा को दे दिया। गंडई जमींदारी में गोंड, तेली मरार, चमार अधिक हैं । वर्तमान जमींदार लाल उदवतसिंह हैं। वे दरबारी खास मुलाकाती व आनरेरी मजिस्टेट हैं। वे गंडई से डेढ मील पडुरिया में रहते हैं, जिनकी जनसंख्या 1436 है। इस जमींदारी में खेती आधे से अधिक रकने में होती हैं। कोदों अधिक होता है, यों तो चावल व गेहूँ भी थोड्डे-थोडे होते हैं। सन् 1901-02 के बंदोबस्त के समय यहाँ की आमदनी १9,157 रुपए लेखी गई थी और सरकारी टकौली 6655 व अबवाब 682 रुपये स्थिर किये गये थे। इस जमींदारी में 46 वर्ग मील जंगल है जिसमें सागौन, बीजा, साज, हर्रा व बाँस बहुत हैं। गंडई खास में हर इतवार को बाजार भरता है। यहाँ के ढोरों का बाजार जिले भर में सबसे बडा समझा जाता है, यहाँ तक कि सागर, मंडला व बालाघाट जिलों के मवेशी भी यहाँ बिकने को आते हैं। पंडुरिया में बहुत बनियाँ बस गए हैं । गंडई और पंडुरियाँ एक तरह से उत्तरीय जमींदारियों के व्यापार केंद्र हैं। छुईखदान की सीमा से पास ही इस जमींदारी में एक चकनार नाम का गाँव है। यहाँ नरबदा कुंड नाम का एक गरम पानी का झरना है। कुण्ड के किनारे देवी का मंदिर है। यहाँ हर साल मेला भरता है और अनाज व ढोरों की प्रदर्शनी होती है। अन्य बाजार साल्हेवाडा में सोमवार और अवानकपुर में गुरुवार को भरते हैं। गंडई दुर्ग से 42 मील व राजनांद- गाँव से 44 मील पर है।
गंडई गाँव Gandai Village
रकबा 777 जनसंख्या 676 । यह गाँव गंडई जमींदारी के मुख्य स्थान दुर्ग से 42 मील वायव्य में धमदा की सड्क पर है। यह सतपुडा पहाड से लगा हुआ है । यहाँ से डेढ मील पर पडुरिया नाम का एक बडा मौजा है, जहाँ कि गंडई के जमींदार रहते हैं । गंडई में ढोरों का बहुत बडा बाजार भरता है। यहाँ पुलिस थाना, प्राइमरी शाखा, बारी कमास्टरी का बँगला व अस्पताल है। यहाँ पर एक प्राचीन शिव मंदिर भी है, जिसकी मरम्मत सरकार ने करा दी है। जिले भर में सबसे बडा मेला यहीं भरता है। इसके दरवाजे पर पाँचों पांडवों और कुंती और द्रौपदी के चित्र बने हैं और उनके नीचे नाम खुदे हैं।
गुंडरदेही जमींदारी Gundardehi zamindari
यह जमींदारी दुर्ग तहसील में दुर्ग के दक्षिण में है। वह चारों ओर खालसा से घिरी हुई है। विस्तार 83 वर्ग मील है। भूमि यहाँ की सम और उर्वरा है। जंगल का तो नाम तक नहीं है। शिवनाथ की सहायक नदी तान्बुला इस जमींदारी में, उत्तर से दक्षिण की ओर बही है। अन्य स्रोतों में पंडरा, सूखा, चेरिया, सेमरा और बंधा मुख्य हैं। एक जमींदारी के बडे-बडे गाँव तान्दुला के किनारे बसे हैं । प्राय: हर एक गाँव में एक-एक तालाब है, जो नहाने-धोने के साथ-साथ आबपाशी के भी काम आत है। जमींदार कंवर जाति के ठाकुर हैं । आदि पुरुष माखनसिंह ने सन् 1525 ई. में बस्तर के राजा को हटाने में रतनपुर के राजा की सहायता की थी, इसलिए उसे यह जमींदारी जगीर में दी गई थी और राय की पदवी प्रदान की गई। तब इसमें 48 गाँव थे। कुछ दिन पीछे बालौद परगना मिल गया, तब माखन सिंह बालौद में जाकर रहने लगा। सन् 1540 ई. मैं चोर चाण्डालों के दमन करने के कारण उसे 4 तालुके अर्थात् रजोली, आरमोरी, और गुरेड्रा और मिल गए। हर एक में बारह-बारह गाँव थे। माखनसिंह रतनपुर के राजाओं को एक टकौली देता रहा, परंतु जब मरहटों का अमल हुआ तो चार तालुके निकाल लिये गए और टकौली चार कर दी गई। पश्चात् एग्न्यू साहब ने 28 गाँव निकाल लिये और टकौली 5020 नागपुरी रुपये की नियत कर दी। इस प्रकार जमींदारी केवल 55 गाँव की रह गई। वर्तमान जमींदार निहालसिंह है । ये गुंडरदेही में रहते हैं। आबादी तेली, कुरमी व चमारों की है । यह जमींदारी इतनी सघन नहीं है । गुंडरदेही खास में सन् 1911 में 1219 मनुष्य व कंदूल में 1090 मनुष्य थे। इस जमींदारी में सैकडा पीछे 81 अंक में खेती होती है। यहाँ की भूमि की उपजाऊ शक्ति का इस एक बात से पता चलता है कि खेती की दो तिहाई भूमि कन्हार है। एक पंचमांश मटासी व सप्तामांश डोरसा है। भाटा केवल सौ में तीन अंक है। चावल, मूंग, उडद, कोदों, कुटकी, अलसी और गेहूँ की विशेष पैदावारी है। ताब्दुला के किनारे के कई गाँवों में तरकारियाँ और बिही बहुत पैदा होती है। पिछले बंदोबस्त के समय इस जमींदारी की आय 23,887 रुपये लेखी गई है, जिस पर 6700 रुपए टकौली व 964 अबवाब लगाए गए थे। गुंडरदेही राजनांदगाँव से 23 मील पर है और दुर्ग स्टेशन से तो केवल १7 मील है । यहाँ से दोनों जगहों को पक्की सडकें बनी हुई हैं। मुख्यत: व्यापार नांदगाँव ही से होता है । गुंडरदेही में प्राइमरीशाला अस्पताल व डाकखाना हैं । हर बुधवार व शुक्रवार को बाजार भरता है।
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गुरूर Gurur
रकबा 910 एकड, मनुष्य संख्या 716 । संजारी तहसील में बालौद से 23 मील धमतरी के रास्ते पर है। पाँच के समीप प्राचीन मंदिरों के खंडहर हैं ।एक पत्थर पर शिलालेख हैं, उस में लिखा है कि ' स्वस्ति काकरय परममाहेश्वर सोमवंश कुछ तिलक राणक श्री बाघराज राज्ये' वहाँ के किसी निवासी ने उमाकाथ और कालभैरव की निमित्त कुछ भूमि प्रदान की । बाघराज कांकेर के राजा थे और बारहवीं शताब्दी के मध्य में राज्य करते थे। इस प्रकार गुरूर का लेख आठेक सौ बरस पुराना है। यहाँ सात फुट ऊँची गणेश की एक विशाल मूर्ति है । गुरूर में डाकखाना, प्राइमरीशाला और पुलिस थाना है । एक बारिक मास्टरी का बँगला भी है।
चंदखुरी Chandkhuri
रकबा 1477 एकड, मनुष्य संख्या 1514 । बेमेतरा तहसील में बेमेतरा से 27 मील और से 8 मील पर एक छोटा सा गाँव है । यहाँ अमेरिकन मिशन की एक शाखा है, जो निकटस्थ बैतालपुर में सरकारी सहायता से एक लडकों व एक लडकियों का स्कूल चलाती है । मिशनरियों ने यहाँ कुष्ठाश्रम खोल रखा है। जिसमें प्राय: 400 कोढी रहते हैं। इन रोगियों के लिए एक निराला स्कूल है।

चौरेल Chaurel
रकबा 1192 एकड, मनुष्य-संस्था 719 है। गुंडरदेही जमींदारी में तान्दुला नदी से एक मील पश्चिम में है, यहाँ पर कई देवताओं की सुंदर पत्थर की मूर्तियाँ हैं। खुदाई का काम अच्छा है।
ठाकुरटोला जमींदारी Thakurtola zamindari
यह जमींदारी बेमेतरा तहसील में है। इसका क्षेत्रफल 183 वर्ग मील है। इसमें कुल 81 गाँव हैं, जिनमें से 10 ऊजड हैं। सारी जमींदारी जंगली है। उसका पश्चिमी भाग तो अत्यंत ही पथरीला है। खास ठाकुरटोला को छोड शेष भूमि तो खेती के योग्य भी नहीं है। दो-चार जगह डोरसा को छोड सब भाटा है। 44 गाँव पश्चिम में ऊँचे पर और 27 पूर्व में निचास में बसे हैं। बनभैंसों को छोड इस जमींदारी में हर तरह के जंगली पशु मिलते हैं। जंगल की मुख्य उपज सागौन, साज, बीजा, हर्रा, बाँस आदि हैं, परंतु इनको निकालने का सुभीता नहीं है। इस जमींदारी का मूल पुरुष चमारराय था। मरहटों ने उस को सन् 1842 ई. में पूर्व जमींदार को निकाल कर जायदाद बख्शी थी। वर्तमान वंश का संबंध नरसिंहपुर जिले की दिलहरी व पिटेरा राजगोंडों के घराने से और जबलपुर जिले के गंडरा के राजा से है। जमींदारी बहुत . ही बिरल बसी है। कुल जनसंख्या सन् 1911 में केवल 5032 निकली थी। निवासी अधिकांश गोंड हैं, जो कि साल अच्छा न होने पर अन्यत्र जा बसते हैं। खेती आधे से कुछ अधिक रकने में होती है । मुख्य फसलें कोदों, कुटकी, चावल हैं। थोडा-बहुत गेहूँ भी कहीं-कहीं हो जाता है । ठाकुरटोला खास के आसपास गेहूँ अच्छा हो सकता है । इस जमींदारी की आय 7279 रुपये दी भी गई है। टकौली 1800 व अबवाब 219 रुपये जमींदारी में केवल एक ही सड्क है, जो गण्डई से ठाकुरटोला होती हुई खदान को चली गई है। ठाकुरटोला में हर सोमवार को बाजार भरता है । रामपुर में बुधवार और बकरखटा में भी शुक्रवार को हाट लगता है। ठाकुरटोला दुर्ग से 52 मील व खैरागढ से 17 मील पर है। गण्डई से तो 9 मील पर है । ठाकुरटोला और रामपुर में प्राइमरी शालाएँ हैं।
डोंडी लोहारा जमींदारी Dondi Lohara zamindari
संजारी तहसील में दुर्ग से 40 मील व बालौद से 12 मील पर है। इसका विस्तार 280 वर्ग मील है, जिसमें 37 वर्ग मील में घना जंगल है। कहीं-कहीं इस जमींदारी के भीतर खालसा के गाँव आ गए हैं, जैसे मध्य में दल्ली पट्टी के और डोंडी के पास खैरवाडी । इस जमींदारी में पहाड्याँ उत्तर से दक्षिण की ओर चली गई हैं। उत्तर में पहाडियों की चोटियाँ चौरस हैं। दक्षिण में शिखरीली हैं। इन पहाडियों के कारण जमींदारी के 3 विभाग हो गए हैं, अर्थात (1) उत्तरीय भाग, जिस में से जागोरा नदी बही है (2) पश्चिमी भाग, जिसमें से खरखरा नाला बहा है (3) दक्षिणी विभाग, जिसमें तांदुला नदी बही है। तांदुला इस जमींदारी के पूर्वीय और खरखरा पश्चिमी सीमा बनाते हुए बही है। जमींदारी के अच्छे गाँव उत्तर ही में लोहारा खास के आसपास बसे हैं । पश्चिमी भाग के गाँव सब से खराब हैं । जंगलों में घास, हर्रा और सागौन खूब होता है। मालकसा और अंगारा के पास के जंगलों में बाँस बहुत मिलता है। कोपेदरा व अन्य कई पहाडियों में धाऊ बहुतायत से निकलती है।
यह जमींदारी पहले एक कटंगा नामी गोंड के अधिकार में थी, पर उससे उसका प्रबंध नहीं हो सकता था। इस कारण दलसाह नामक एक राज गोंड ने रतनपुर के राजा को बकाया चुका सन् 1532 ई. में अपने नाम पर लिखा ली। तब से उसी के वंशजों के हाथ में है। वर्तमान जमींदार लाल फत्तेसिंह हैं। वे लोहारा से 24 मील व खालौद से 12 मील डोंडी गाँव में रहा करते थे। बालौद से लोहारा तक एक पक्की सड्क बनी हुई है। जमींदारी में 147 गाँव हैं, इसमें विशेष कर हलबा, गोंड, तेली, कलार ओर मरार बसते हैं। कुल जनसंख्या 27,737 है।
सबसे बडा गाँव डोंडी हैं। उसकी जनसंख्या 1146 है और लोहारा की 13144 है । खेती कुल रकबे के पंचमांश के दूने भाग में होती है। लोहारा के पास की जमीन डोरसा है । पूर्वी व दक्षिणी भागों में मटासी और माटा अधिक है। लोहारा के ईशान में कुछ गाँवों की जमींन कल्हार है । डोंडी के आस-पास की मटारी जमीन उपजाऊ है। कुसुमकसा व मेसाबोड के उत्तर की डोरसा ककरीली है। मुख्य फसल ये हैं--चावल, कोदों, कुटकी, उड्द,मूंग, अलसी चना और गेहूँ । जमींदारी की कुल आमदनी 26,193 रुपये है। 6,800 ढकोली व 937111 अबवाब देना पड्ता है । इस जमींदारी के उत्तर से दक्षिण को होती हुई राजनांद गाँव अंतागढ सड्क गई है। इसी रास्ते द्वारा बंजारे हर्रा व अनाज कांकेर व नादगाँ ले जाते हैं। डोडी में डाकखाना, पुलिस थाना और प्राइमरी शाला है। वैसे ही लोहारा में भी पुलिस थाना, प्राइमरीशाला व डाकखाना है। डोंडी में हर शनिवार व लोहारा में सोमवार और कुसुमकसा में हर शुक्रवार को बाजार भरता है। डोंडी लोहारा से एक मील पर स्टैरा नाम का ग्राम है, जहाँ मिशनरियों ने एक अनाथालय खोल रखा है।
तांदुला नहर Tandula Canal
तांदुला नदी कांकेर रियासत के उत्तर से निकलकर बालौद, गंडरदेही से होती हुई जिले की दक्षिणी सीमा स्थित चांगोरी के पास शिवनाथ नदी में मिल गई है, नदी की कुल लंबाई लगभग 60 मील है। इसका सहायक सूखा नाला है। जो बालौद के पास इसमें मिल गया है। इस नदी का नाम तंदुल (चावल) शब्द के कारण पडा है। कहते हैं कि किसी गोंड ने इस नदी पर बंधान बाँध उसके द्वारा 400 एकड जमीन पर आबपाशी करके चावल पैदा किया था। अब यहाँ एक बडी भारी नहर बनाई गई है, जिससे दुर्ग जिले की प्राय: आधे हिस्से की और रायपुर जिले के कुछ भाग की आबपाशी होगी। . इस नहर के प्रस्तुत करने में प्राय: एक करोड रुपया लगा है। यद्यपि महानदी नहर इस प्रदेश में सबसे बडी है तथापि जो काम तांदुला पर किया गया है, वह सबसे बढकर है। इसीलिए तांदुला नहर मध्य प्रदेश के सप्त प्रेक्षणीय स्थानों में गिनी जाती है। वे सप्तस्थल ये हैं..
मदनमहल, गोविंदभवन, जोमिनमठ, धुअँधार।
इम्प्रेस मिल, नहर, नल मुगलई निहार।

दल्ली पहाड 
संजारी तहसील की डोंडीलोहारा जमींदारी में एक पहाडियों की श्रेणी है। इन पहाडियों में धाऊ बहुतायत से निकलती है। यहाँ झरने और दलदल हैं, कदाचित् दल्ली नाम से इसी से पडा हो।
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दुर्ग तहसील
यह तहसील दुर्ग जिले के मध्य में है। उत्तर में बेमेतरा तहसील, पूर्व में रायपुर जिला, दक्षिण में संजारी तहसील और पश्चिम में खैरागढ व नांदगाँव की रियासतें हैं। तहसील की क्षेत्रफल 1064 वर्गमील है। इसमें केवल एक जमींदारी गुंडरदेही है, जिसका क्षेत्रफल 140 वर्ग मील है। शिवनाथ नदी इस तहसील के भीतर होकर बही है और खारून नदी ईशान की सरहद बनाती हुई निकल गई है । सारी तहसील में बबूल व आम वनों की बहुतायत है । सरकारी जंगल बिलकुल नहीं हैं। जमीन प्राय: सम है । मिट्टी काली व कहीं रेतीली है। यहाँ की भूमि चावल की खेती के लिए बहुत अच्छी है। इस तहसील में तांदुला 'सोनबारसा' आमनेर आदि कई नदियाँ हैं, जिनके कछार उपजाऊ हैं।इस तहसील में से पक्की सड्क दुर्ग भिलाई आदि होती हुई गई है । इसी सड्क द्वारा इस तरह सील का व्यापार रायपुर जिले से होता आया है। दुर्ग तहसील की जनसंख्या 2,46,691 है। इसी रकब की जनसंख्या सन् 1901 में, जब जिला अलग नहीं बना था, तब 2,09362 थी, अर्थात् दस साल में प्रतिशत प्राय: 18 जन की वृद्धि हुई थी। ग्राम संख्या 576 है। सन् 1911 में जिन गाँवों की मनुष्य संख्या 1000 से ऊपर थी, वे ये हैं। अर्जुडा, आरंडा,कांदुल, चंदखुरी, केसरा, गुण्डरदेही, थनौद, नगपुरा, नवागाँव, नंदकठी, निकुम, पाटन, बटरैल, वोरई, भोरदाडीह, अनसुली और भिलाई । उसी वर्ष धमदा की आबादी 3059 और दुर्ग की 7048 थी।
दुर्ग तहसील की जमीन यों तो मुरमीली है, पर कहीं कहीं काली भी है। निदान संजारी तहसील से अच्छी ही है । शिवनाथ से मुंगेली तक के उत्तरीय हिस्से की मिट्टी काली है । कन्हार और डोरसा जमींन के जिन खेतों में बंधान बाँध कर खेती होती है, उनमें दो फसलें बराबर पैदा होती हैं। मालगुजारी व जमींदारी जंगल १163 वर्गमील है । मुख्य फसल चावल है। आधे रकबे में यही होता है, शेष में कोडों, कुटकी, उडद, मूंग, मोठ आदि होते हैं। अलसी, लाखौरी, उडद, मसूर, बटरा आदि चावल कट चुकने पर बोते हैं। तमाखू, गन्ना व कपास बहुत कम होता है। पिछले बंदोबस्त में इस तहसील की सरकारी जमा 226,741 रुपये स्थिर की गई है।
इस तहसील में 7 रेवन्यू इन्स्पेक्टर हैं, वे बोरी, भिलाई, कुथरैल, नंदकठी, पांढर,करेला और गुण्डरदेही में रहते हैं। कुल पटवारी 140 हैं। फी रेवन्यू इन्स्पेक्टर के हलके में औसत 20 पटवारी व 90 गाँव पडते हैं। इस तहसील में कुल 6 पुलिस थाने-अरजुण्डा, दुर्ग, धमदा, पाटन, भिलाई व रनचिरई में हैं। पाठशालाएँ 58 हैं।

दुर्ग कस्बा Durg City
रकबा 1128, मनुष्य-संख्या 7048 । दुर्ग जिले का सदर मुकाम है और बी.एन. रेलवे का स्टेशन है। दुर्ग रेल द्वारा कलकत्ता से 536 मील, बंबई से 685 मील और रायपुर से केवल 25 मील है । शिवनाथ नदी वहाँ से दो मील पर है । जनसंख्या के मान से मध्य-प्रदेश के शहरों में इसका नम्बर 48वां हैं। कहते हैं कि खीष्टीय 12वीं शताब्दी में मिर्जापुर से कोई जगपालसिंह नामी सरदार रतनपुर राजा का खजांची होकर आया। इसकी कार्यदक्षता से राजा रतनदेव इतना प्रसन्न हुआ कि उसे दुर्ग और उसके साथ 700 गाँव जागीर ५ में दे दिए। इसलिए जगपाल दुर्ग में आकर रहने लगा। किंवदन्ती है कि इसी जगपाल ने राजिम में राजीव लोचन का मंदिर बनवाया और पूजा करने के लिए वह प्रतिदिन राजिम को जाया करता था। राजिम में एक शिलालेख है । उसमें ३ जगपाल के कर्त्तव्यों का वर्णन है । उसने दुर्ग से लेकर बिन्दा नवागढ जमींदारी ` के दक्षिण भाग कांदा डोंगर और धमतरी तहसील के सिहाबा तक जीत कर | रतनपुर के राज में मिला लिया था। उसमें यह भी लिखा है कि उसने अपने नाम पर जगपालपुर नामक शहर बसाया था। इस नाम का कोई ग्राम जिले में नहीं पाया जाता। अनुमान से जान पडता है कि दुर्ग या उसके निकटस्थ नगर का ही का नाम पलट कर उसने जगपालपुर रख दिया है । कालांतर में नगर और किला मिल कर एक हो गए हों। तब एक का नाम लुप्त हो जाना ही चाहिए। दुर्ग में एक शिलालेख मिला है । जिसके अक्षर राजिम के शिलालेख से पुराने हैं। दुर्ग के शिलालेख में शिवपुर और शिवदुर्ग का उल्लेख है और राजा का नाम शिवदेव लिखा है। इससे जान पड्ता है कि शिवदेव के जमाने में जगन और किला अलग-अलग थे और राजा के नाम पर. धराए गए थे। जगपाल ने शिवदेव की देखा-देखी शिवपुर का जगपालपुर नाम कर दिया हो।
किले का ध्वंसावशेष अब भी विद्यमान है। इसके चारों ओर एक गहरी खाई थी, जिसके भी चिह्न मौजूद हैं। सन् 1941 में जब मरहटे छत्तीसगढ पर चढे थे, तब उन्होंने अपना केंद्र स्थान दुर्ग के किले ही में रखा था। खाई के तो अब बहुत से छोटे-छोटे तालाब बन गए हैं । दुर्ग बहुत प्राचीन स्थान है । यहाँ एक बुद्ध की मूर्ति तथा ऐसे कई चिह्न मिले हैं, जिनसे जान पडता है कि यहाँ बौद्ध मत का बडा प्रचार था। पाली असरों में यहाँ पर एक खंडित लेख भी मिला था। कस्बे के भीतर सारना बाँध नाम का एक बडा तालाब है । कहते हैं कि उसको नौ लाख ओडियों ने एक रात में बनाया था और अपनी टोकनियाँ (वर्तमान स्टेशन के पास) एक जगह पर गड्डा दीं, जिससे इतना बडा ढेर लग गया कि अब वह टकरना झरौनी की पहाडियाँ कहलाती हैं। दुर्ग में पीतल और काँसे के बर्तन अच्छे बनते हैं। कुछ कपडा बुननेवाले भी यहाँ बसते हैं। बाजार हर बुधवार व शनिवार को भरता है। यहाँ एक अंग्रेजी मिडिल स्कूल, एक अस्पताल, एक पुत्रीशाला, एक पुलिस स्टेशन, एक डाकबँगला और सर्किटहाउस है। इमारतों में जिला कचहरी, जो दो लाख की लागत से बनी है, देखने योग्य है । यहाँ कोई जेल नहीं है। कैदी रायपुर भेज दिए जाते हैं। यहाँ पर रायपुर मिशन संस्थान की एक शाखा है।यह कस्बा सन् 1906 में नोटिफाइड एरिया करार दिया गया था, अब म्युनिसिपालटी कायम हो गई है, जिसकी आमदनी लगभग 32000 रुपये हो जाया करती है।
देवकर Devakar
रकबा 2583, मनुष्य संख्या 1693 । बेमेतरा तहसील में बेमेतरा से 17 मील नैऋत्य में सुरही नदी पर है। यहाँ कुछ खंडित मंदिर तथा सती के चोरे विद्यमान हैं। बस्ती में बनियों की अधिकता है और वे ही लोग इस गाँव के मालगुजार हैं । हर इतवार व बुधवार को बाजार भरता है, जिसमें अनाज और कपडे की विशेष बिक्री होती है। यहाँ एक लडकों की और लडकियों की प्राइमरीशाला और डाकखाना है।

देव बलौदा Dev Baloda
रकबा 1744, मनुष्य-संख्या 645 । यह गाँव दुर्ग तहसील में दुर्ग से 14 मील व भिलाई रेलवे स्टेशन से दो मील पर है। यहाँ एक शिव का प्राचीन मंदिर है, जिसमें अनेक प्रकार की मूर्तियाँ खुदी हुई हैं। एक स्थल पर शूकर के शिकार का चित्र है, जिसमें शिकारी बरछी द्वारा शिकार कर रहे हैं। चौखट पर भी शूकर के आकार बने हुए हैं । कहते हैं कि पहले इस तरफ बहुत शूकर पाए जाते थे। मंदिर के भीतर चारों खम्भों और गर्भगृह के द्वार पर अनके सुंदर व प्रेक्षणीय चित्र खुदे हैं। द्वार पर गणेश की मूर्ति और उसके ऊपर सरस्वती की मूर्ति खुदी हुई है। समीप ही पत्थर का एक बड्डा कुआँ व तालाब है। कहते हैं कि इस मंदिर का मिस्री नग्न होकर कलश चढाने को ऊपर चढा। उस समय उसकी बहिन कलेवा लेकर पहुँची । उसको देखते ही मिस्री तालाब में कूद पडा। तब उसकी बहिन भी उसी तालाब में कूद पडी और दोनों पत्थर के हो गए।
धमदा Dhamdha
रकबा 3416, मनुष्य-संख्या 3059, दुर्ग तहसील में दुर्ग से 21 मील उत्तर को बेमेतरा के रास्ते पर शिवनाथ से 3 मील बसा हुआ है। किंवदती है कि धमदा के बसाने वाले कुछ गोंड थे, जिनको रतनपुर के राजा ने एक पागल हाथी को बस में ले आने के कारण सरधा परगना इनाम में दिया था। सरधा परगना में इन गोडों को दो तालाब व दो मंदिर दिखे। उसी मनोरम स्थान पर वे लोग ठहर गए ओर धमदा गाँव की नींव डाली। यहाँ पर एक गढी के खँडहर भी है। यह कदाचित् इन्हीं गोंड सरदारों की बनवाई है । ये सरदार पंचभैया के नाम से प्रसिद्ध थे। किले के दो दरवाजे अब भी विद्यमान हैं। भीतर अनेक मंदिरों के खंडहर हैं। किले से लगा हुआ बूढा नाम का एक बड्डा तालाब है। छोटे-मोटे अन्य कई तालाब हैं। छत्तीसगढ में धमदा किसी समय रतनपुर को छोड सबसे अधिक प्रसिद्ध था। यहाँ पीतल आदि के बर्तन बनाने का काम होता है। पान की खेती विशेष कर की जाती है। यहाँ के पान दूर-दूर तक भेजे जाते हैं। गाँव में कई साहूकार बसे हैं। अनाज विशेष कर गेहूँ का बडा व्यापार होता है। हर मंगलवार को यहाँ बाजार भरता है। यहाँ पाठशाला, डाकखाना, पुलिस थाना व बारिक मास्टरी का एक बँगला हैं।
नगपुरा Nagpura
एकड या मील, मनुष्य संख्या 1452 । दुर्ग तहसील में दुर्ग से लगभग ऽ मील वायव्य में शिवनाथ नदी पर एक बडा गाँव है। यहाँ की जमीन दो फसली और अत्यंत उपजाऊ है । यहाँ एक जैन मंदिर है। कहते हैं कि आरंग, देवबलौदा और नगपुरा के मंदिर एक ही रात को बने थे। यहाँ प्राइमरीशाला है।
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नवागढ Navagarh
एकड या मील, मनुष्य संख्या 2434, बेमेतरा तहसील के उत्तर में बेमेतरा से प्राय: 15 मील और दुर्ग से 63 मील पर मोरंगिया नाले के पश्चिमी तट पर बसा हुआ है। नवागढ किसी समय गोंड राजाओं को राजधानी थी। इन लोगों ने दो तालाब खुदवाए थे। किले की खाई तो अभी तक मौजूद है। नवागढ छत्तीसगढ के 36 किलों में गिना जाता था। मरहठों के जमाने में और अंग्रेजों के समय में भी नवागढ सन् 1964 ई. तक तहसील का केंद्र बना रहा। यहाँ खेडापति का एक प्राचीन मंदिर बना है, जिस पर कहते हैं सम्वत् 704 पडा है। यहाँ एक तरह का लाल पत्थर मिलता है, जिसकी चौकिया आदि बनाते हैं। कपडा बुनने और बर्तन बनाने का काम भी होता है। हर मंगलवार तथा इतवार को बाजार भरता है। यहाँ प्राइमरीशाला, पुलिस थाना और डाकखाना है।
परपोड़ी जमींदारी Parpodi zamindari
बेमेतरा तहसील में धमदा के वायव्य में है। इसका क्षेत्रफल 34 वर्ग मील और जनसंख्या 8096 है। कुछ गाँव 24 हैं। उन सबमें अच्छी खेती होती है। इस जमींदारी में जंगल का तो नाम ही नहीं है। कन्हार और डोरसा जमीन की अधिकता है। नरबदा नाला इस जमींदारी की उत्तरीय सीमा पर से बहता है। यहाँ के जमींदार का वंश प्राचीन है। ये लोग घमदा के गोंड राजवंश से सम्बंध बतलाते हैं। कहते हैं इनके एक पूर्वज दुर्जनसिंह ने भोंसलों को सम्बलपुर जीतने में सहायता की थी, इसलिए उन्होंने छुईखदान की रियासत बख्श दी थी। दुर्जन के नाती धनसिंह ने वह रियासत कर्ज में खो दी । वर्तमान जमींदार लाल राजेंद्रसिंह नाबालिग है । उनका संबंध जबलपुर जिले में इमलई के राजा से है। यह जमींदारी खूब सघन बसी है। तेली, लोधी, गोड, और मरार अधिक हैं। सबसे बडा गाँव परपोडी है, जिसकी जनसंख्या सन् 1911 में 8066 थी । यहाँ प्राइमरीशाला व डाकखाना है।
सन् 1901-02 में इस जमींदारी की आय लगभग १0,900 रुपये कूती गई थी। इस पर 3500 टकोली और 415 रुपये अबवाब बैठाए गए थे। परपोडी खास में कुछ कच्छी आकर बस गए हैं । ये लोग गेहूँ, चना, तिल्ली . आदि राजनांदगाँव को भेजते हैं और शक्कर, नमक, सन्, कपडा और मिट्टी का तेल आदि वहाँ लाते हैं। बाजार हर शुक्रवार और सोमवार को भरता है। परपोड्डी दुर्ग से 33 मील व धमदा से केवल 12 मील है।

पाटन Patan
एकड या मील, जनसंख्या 15071 दुर्ग तहसील में दुर्ग में 20 मील आग्नेय में है ¦ यह छत्तीसगढ के 36 किलों में से एक था। कहते हैं इसका असल नाम भंगपुर पाटन या अंधेर नगरी था, जिसके विषय में कहावत प्रसिद्ध है ' अंधेर नगरी अनबूझ राजा' । टकासेर भाजी टका सेर खाजा । इस गाँव में 22 तालाब हैं, जिनमें से 18 तो आबपाशी के काम आते हैं । इनमें से एक अगर तालाब है। इसको लोग बुद्धिनाशा भी कहते हैं, क्योंकि पहले जो इसका पानी पीता था, उसकी बुद्धि नष्टहो जाती थी और वह पागल हो जाता था। ठीक इसके विरुद्ध भोज राजा की धारा नगरी वर्तमान धार में एक सरस्वती कूप ५ था, जिसे अब अक्कलकुई कहते हैं। लोगों का विश्वास है कि इसका पानी ' पीने से अक्ल तीव्र हो जाती है। पाटन में आसपास के बहुत से मालगुजार तथा साहूकार रहते हैं। यहाँ पुलिस थाना, प्राइमरीशाला और डाकखाना है। हर मंगलवार को बाजार भरता है।
पानाबारस जमींदारी Panabaras zamindari
यह और औधी जमींदारी एक ही जमींदार के हाथ में है। इसका आकार पंचकोण है । उत्तरीय भाग पहाडी व जंगली है । पूर्वीय हिस्सा भी पहाडी है। इन दो हिस्सों के बीच सैकडों नाले हैं, जिनके कारण भूमि खेती के उपयुक्त हो गई है। जमींदारी का क्षेत्रफल 619 वर्ग मील और जनसंख्या 28038 है। इसमें 181 गाँव हैं। शिवनाथ नदी जमींदारी से निकली है और इस जमींदारी व चांदा की पश्चिमी सीमा बनाती हुई उत्तर को चली गई है। इस जमींदारी में रामगढ नामी एक पुराना किला है और देवलसुर गाँव में कुछ मंदिरों के ध्वंसावशेष हैं । पहले जमींदारी का सदर मुकाम पानाबारस था। अब वहाँ से 10 मील मोहाला में हैं।इस जमींदारी में सागोन बहुत होता है। यह जमींदारी प्राचीन है और चांदा के गोंड राजा की दी हुई बतलाई जाती है। कहते हैं जमींदारी के पुरखा धामशाह ने मुगल सेना का सामना ऐसी बहादुरी से किया कि बादशाह ने प्रसन्न होकर उसे बैरागढ राज का सरदार बना दिया। सन् 18 18 ई. की हलचल के समय निजामशाह आपा साहब से अंग्रेजों के विरुद्ध मिल गया। इन लोगों ने रांगी के पास गिलगाँव में एक बार अंग्रेजी फौज के 70 जवानों की टोली बिलकुल काट डाली थी, परंतु अंत में हार कर कांकेर का आश्रय लेना पडा। सरकार ने पीछे से क्षमा प्रदान कर जमींदारी लौटा दी। धर्तमान जमींदार दामेशाह है। जमींदारी की कुल आमदनी 25000 है, खर्च भी लगभग 17000 है। यहाँ की आबादी बढती जाती है। कारण यह है कि इस इलाके में बहुत सी जमीन बिना जुती पडी है। यहाँ गोंड, हलबा, कलार, कंवर अधिक हैं । चावल, कोढी, कुटकी और अलसी की पैदावारी विशेष होती है। पिछले बंदोबस्त के समय इस जमींदारी की वार्षिक आय 18189 लेखी गई थी, जिस पर 1500 टकौली व 605 रुपये अबवाब लगाये गए थे। जमींदारी में कोई बडा गाँव नहीं है। पानाबारस की जनसंख्या केवल 350 है और मोहालों की 489 । मोहाला राजनांद गाँव से 47 मील और दुर्ग से 65 मील है । यहाँ से चौकी को भी सडक गई है। यहाँ प्राइमरीशाला और डाकखाना है। एक निजी अस्पताल भी है।
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बनबरद Banbarad
रकबा 2117, मनुष्य-संख्या 622 है। दुर्ग तहसील में दुर्ग से प्राय: 14 मील उत्तर में नंदकठी के समीप है। यहाँ एक रामचंद्र का मंदिर है तथा अन्य कई प्राचीन इमारतों के ध्वंसावशेष हैं । एक पत्थर में गाय व बछङडे की मूर्ति बनी है । पास ही में एक पत्थर का कुआं हैं। इसका इतना महात्म्य माना जाता है कि गोवध करने वाला यदि इस कुएँ में स्नान कर उन मूर्तियों को पूजा करे तो हत्या के पातक से मुक्त हो जाता है । यहाँ कई तालाब हैं, जिनमें गटवा नामक विशेष प्रसिद्ध है और बडा पवित्र समझा जाता है। लोग कहते हैं बनबरद कभी राजधानी का स्थान था।
बरबसपुर जमींदारी Barbaspur zamindari
यह बेमेतरा तहसील में एक छोटी सी जमींदारी है। इसका क्षेत्रफल 32 वर्गमील है और ग्राम संख्या 23 है। जमींदारी असल में दो विभागों में बँटी हुई है। एक तो पश्चिम भाग, जो कि सिलहटी जमींदारी के दक्षिणी में है और दूसरा पूर्वी, जो नांदगाँव और खैरागढ रियासतों से लगा हुआ है । दोनों भागों के बीच में 6 मील गंडई आडी आ गई है। पश्चिमी भाग की भूमि निकृष्ट है, पूर्वी भाग की जमीन डोरसा या कन्हार है, जिसमें ढन्हारी पैदा होती है। जमींदार गंडुई वंश का धुरगोंड हैं।यह जमींदारी बाजीराव भोंसले के समय में गंडुई से अलग कर दी गई थी। वर्तमान जमींदारिन सोनकुंवर बाई है। इस जमींदारी में कोई बडा गाँव नहीं है। बरबसपुर खास में केवल 135 मनुष्य बसते हैं। जमींदारिन बरबसपुर में रहती हैं। वहाँ एक प्राइमरीशाला है। बरबसपुर दुर्ग से 34 मील व राजनांदगाँव से 40 मील है। सन् 1901-02 के बंदोबस्त के समय इस जमींदारी की कुल आय 6251 रुपये आँकी गई थी, जिस पर 2080 रुपये टकौली व 240 रुपये अबवाब बैठाये गए थे। डोंगरगढ पंडरिया सड्क जमींदारी के बीचोबीच होकर निकल गई है।

बालौद Balod
एकड या मील, मनुष्य संख्या 2326 । बालौद संजारी तहसील का सदर स्थान है, यह तान्दुला नदी के बाएँ किनारे पर दुर्ग से 34 मील पर बसा हुआ है। जब सन् 1906 में दुर्ग का नया जिला बना, उस समय बलौद संजारी तहसील का केंद्र नियत किया गया, पर रायपुर जिले में बलौदा बाजार नाम की तहसील रहने के कारण इस तहसील का नाम बालौद न रखकर संजारी रख दिया था। यह गाँव प्राचीन है। यहाँ बहुत से प्राचीन मंदिरों के खंडहर हैं। कपिलेश्वर नामक एक चोकोण तालाब के किनारे एक जगह सात मंदिर बने हुए हैं, जिनमें दो नवीन हैं। यहाँ दो शिलालेख भी मिले हैं। एक सती के चीरे पर 3 भिन्न-भिन्न समय के लेख हैं, जिनकी तारीखें घिस जाने के कारण सब पढी नहीं जा सकीं। पुरातत्तववेत्ता रायबहादुर हीरालाल साहब ने एक लेख का संवत् 1005 पढा है, उसी पर जो दूसरा लेख है, उसको प्रिन्सेस साहब राष्ट्रीय द्वितीय शताब्दी का बतलाते हैं। यदि उनका सिद्धांत ठीक हो तो यह सबसे प्राचीन सती चीरा ठहरेगा। यहाँ प्राय: 25 तालाब हैं सबसे बडा तालाब बूढा है। इसमें इतना पानी रहता है कि सूखा पडने से चार गाँवों की आवपाशी हो सकती है । इस तालाब के एक ओर ईंट-चूने की बनी हुई गढी है। दीवारें जीर्ण अवस्था में हैं। तालाब के किनारे सुंदर मूर्तियाँ हैं। यहाँ सीताफल व आम के वृक्षों की बहुतायत है। लाख और हर्रे का व्यापार अच्छा होता है। हर बुधवार को बाजार भरता है । यहाँ पाठशाला, डाकखाना, पुलिस थाना, अस्पताल व बारीक मास्टरी का एक बँगला और सराय है।
बेमेतरा तहसील Bemetara Tahsil
यह तहसील दुर्ग जिले के उत्तर में है। यह मुंगेली तहसील का कुछ हिस्सा व रायपुर जिले की सिमगा तहसील मिलाकर बनाई गयी है । तहसील के उत्तर में बिलासपुर जिला व कवर्धा रियासत है, पूर्व में रायपुर जिले की बलौदा बाजार तहसील, दक्षिण में दुर्ग तहसील और पश्चिम में खैरागढ व छुईखदान रियासतें और बालाघाट जिला है। तहसील का क्षेत्रफल 1566 वर्गमील अर्थात जिले का एक तृतीयाँश है। इनमें से 614 वर्ग मील जमीदारियों के अंतर्गत है। शिवनाथ नदी दुर्ग तहसील से बहकर बेमेतरा तहसील में चली आयी है और फिर उत्तर व पूर्व की ओर बहती हुई बिलासपुर जिले में चली गई है। बेमेतरा तहसील के मालगुजारी रकबे में जंगल नहीं है। उसमें नदी- नाले बहुत होने से भूमि अधिक उपजाऊ है। यहाँ मनुवा कुरमी बसे हैं, वे तालाबों से भी आवपाशी करते हैं और जमीन अच्छी कमाते हैं।इस तहसील में 6 जमींदारियाँ हैं अर्थात् परपोंड्री, बरबसपुर, सिलहटी, ठाकुरटोला, गंडई और सहसपुर लोहारा । परपोड्डी जमींदारी को छोड अन्य जमीदारियाँ सब पहाडी हैं। इस तहसील की जनसंख्या सन् 1911 में 2,67,497 थी, सन् 1901 में वह 2,40,846 थी। जमींदारियों की जनसंख्या 1911 में 58,742 निकली थी । बेमेतरा तहसील में 885 गाँव आबाद हैं । सन् 1911 में नवागढ ' व लोहारा की आबादी 2000 से ऊपर थी और 11 ऐसे गाँव निकले, जिनकी मनुष्यसंख्या एक और दो हजार के भीतर थी। वे ये हैं--बेमेतरा 'चंदखुरी, देवकर, कुसमी, खुडुमुड्डा, मानमह्रडीह, मरौद, सरधा, पडुरिया, परपोंडी । मालगुजार अधिकतर कुरमी व ब्राह्मण हैं । बस्ती विशेष कर तेली, लोधी, राजपूत, बनियाँ और गोसाइंयों की है, परंतु अनुसूचित जाति वर्ग के लोगों की अधिकता है। जमींदारियों के एक पंचमंश रकने में खेती होती है और मालगुजारी में चार पंचमांश में। मुख्य फसलें चावल, गेहूँ और कोदों हैं। सरकारी जमा (173755) है। इस तहसील में 9 रेवेन्यू इन्स्पेक्टर हैं । ये मारी, नवागढ, आनंदगाँव, देवकर, बहेरा, गंडई और सहसुपर लोहारा में रहते हैं। कुल पटवारी 134 हैं। फी रेवन्यू इन्स्पेक्टर के हलके में 19 पटवारी व 156 गाँव पडते हैं।इस तहसील में 6 पुलिस थाने हैं, वे बेमेतरा, नवागढ, गंडुई, बरेला और सहलपुर लोहारा में हैं। स्कूल 54 हैं।
बेमेतरा गाँव Bemetara Village
एकड या मील मनुष्य संख्या 1888 । बेमेतरा तहसील का सदर मुकाम है, यह दुर्ग से 47 मील वायव्य में तथा तिलदा स्टेशन से 24 मील सिमगा कवर्धा सडक पर बसा है। दुर्ग से यहाँ तक पक्की सड्क बनी हुई है। अधिकांश बस्ती कुरमियों की है। यहाँ प्रत्येक बुधवार व शनिवार को हाट भरता है । यहाँ वर्नाक्युलर मिडिल स्कूल, डाकखाना, पुलिस थाना, अस्पताल, सराय व बारीक मास्टरी का बँगला है।

माली घोडी Mali Ghodi
संजारी तहसील में लोहारा की सड्क पर बालौद से 5 मील पर है। यह तीन गाँवों की सरहद पर एक हाट भरने का स्थान है। कहा जाता है कि पहले यहाँ एक बनजारा रहता था। इसके पास एक कुत्ता था। एक बार उसने किसी साहूकार के पास उस कुत्ते को धरोहर धर कर कुछ रुपया उधार लिया। कुछ दिनों बाद उस साहूकार के घर चोरी हो गई, चोर लोग सब माल-मत्ता एक तालाब में छिपा आये । कुत्ते ने चोरों को माल छिपाते हुए देख लिया और साहूकार पर किसी प्रकार प्रकट कर दिया, जिससे उसका सारा माल उसे मिल गया । साहूकार कुत्ते की इस सेवा से अत्यंत प्रसन्न हुआ और एक चिट्ठी उसके गले में यह लिखकर बाँध दी कि तेरे मालिक का कर्जा अदा हो चुका अब तू उसके पास लौट जा। इधर कुत्ता अपने मालिक की खोज में निकला, उधर संजारा, जो कि रुपए वापिस करने के लिए आ रहा था, बीच में मिल गया। बंजारे ने चिट्ठी तो देखी नहीं और समझ लिया कि कुत्ते ने विश्वासघात किया और गुस्से में आकर उसे मार डाला, पर जब उसकी नजर उसकी उस चिट्ठी पर पडी, तब तो उसे बहुत पश्चाताप हुआ और उसने उस कुत्ते के स्मरणार्थ 'एक मंदिर बनवा दिया, जो कि कुकर्रामढी के नाम से आज भी विख्यात है, उसके भीतर केवल एक कुत्ते की मूर्ति है।
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शिवनाथ नदी Shivnath River
यह महानदी की सबसे बडी सहायक नदी है। यह पानाबारस जमींदारी की पहाडियों से निकलकर उत्तर व वायव्य दिशा में बहती हुई अम्बागढ चौकी के पास से निकल गई है। शिवनाथ, नांदगाँव, अम्बागढ चौकी के पास से निकल गई है। शिवनाथ, नांदगाँव, अम्बागढ चौकी और खुज्जी की सीमा बनाती हुई वही है। थोडी दूर तक तो यह नांदगाँव और दुर्ग की सीमा बनाती हुई बही है, पर एकाएक पूर्व की ओर घूमकर नांदगाँव रियासत में प्राय: 16 मील तक बहकर फिर दुर्ग जिले में आ गई है। शिवनाथ चंगोरी गाँव के पास तान्दुला नदी से मिलकर कर उत्तर की ओर बहती हुई दुर्ग के पश्चिम से केवल दो मील की दूरी से निकल गई है । उत्तर को बहती हुई वह धरमदा से तीन मील व सिमगा के समीप से होती हुई निकली है। रायपुर और दुर्ग की सीमा पर जमघाट के पास इसमें खारून नदी मिली है और चार मील आगे चलकर इसमें हांपनदी गिरी है । इसके बाद वह रायपुर और बिलासपुर के बीच में प्राय: 40 मील लंबी सरहद बनाती हुई शिवरीनारायण के पास देवघाट में महानदी से मिल गई है। शिवनाथ की कुल लंबाई 220 मील है, जिसमें 80 मील तो दुर्ग में बही है। इसके दाहिने किनारे की मुख्य सहायक नदियाँ तान्दुला और खारून और बाईं ओर सोनबारसा, आमनेर, हांप दुर्ग जिले में और मनियारी, आरपा और लीलागर बिलासपुर जिले में हैं। शिवनाथ का कछार प्राय: रेतीला है। सिमगा व तरेंगा के आस-पास चट्टानें भी हैं। इस नदी का पार अधिक से अधिक पौन मील चौडा है और कगारें 20 से 25 फुट तक ऊँची हैं ।इस नदी में ककडी व तरबूजों की खूब पैदावार होती है। शिवनाथ के विषय में किंवदंती है कि किसी समय शिवा नाम की एक गोंड की लडकी थी। उसे एक गोंड अपने साथ विवाह करने के लिए पकडु ले गया । शिवा ने निषेध किया तो गोंड ने उसे मार कर एक खंदक में फेंक दिया और वहीं से शिवनाथ नदी बह निकली।
सतपुडा पर्वत Satpura Mountains
इस पर्वत श्रेणी की पश्चिमी शाखा मैकल इस जिले के वायव्य से होती हुई निकल गई है। इसके कगार में कुछ जमींदारियाँ पड्ती हैं। मैकल पर्वत की चोटी अमरकंटक है, जहाँ से नर्मदा निकली है। उसको मैकलसुता भी कहते हैं। वह इस मध्यप्रदेश की श्रेष्ठ नदी है। अजहण ने अपनी सूक्ति मुक्तावली में लिखा है--
नदीनां मेकलसुता नृपाणा रणविप्रह:
कवीनां च सुरानन्दश्चेदिमंडलमण्डनम् ॥
अर्थात्
नदिन मांहि मेकल सुता रणविग्रह नृप मांहि ।
सुरानन्द सुकवीन महं चेदी मण्डन आंहि ॥

सहस्रपुर लोहारा जमींदारी Sahaspur Lohara Zamindari
बेमेतरा तहसील में जिले की वायव्याय सीमा पर है। क्षेत्रफल 146 वर्गमील है, इसमें 88 गाँव हैं, जमीन कन्हार और डोरसा है, जिनमें फसलें अच्छी होती हैं । इस प्रकार उपज के हिसाब से जमींदारी अच्छी है, पर बहुत पीछे पडी हुई है। 60 वर्गमील का तो जंगल ही है, जिसमें सरई, साज, बाजा व हर्रा के झाडु बहुत होते हैं। पहले यह जमींदारी कवर्धा रियासत के अंतर्गत थी। अब कवर्धा के ठाकुर ने उसे बैजनाथसिंह को बख्श दिया। तब वह अलग जमींदारी हो गई। जमींदार बेलकरियाँ गोंड हैं । जमींदारी की जनसंख्या 6467 हैं। गोंड, क्षत्री, तेली मुख्य निवासी हैं। इस जमींदारी में लोहारा को छोड और दूसरा बडा स्थान नहीं है। लोहारा की जनसंख्या सन् 1911 में 2255 थी। यहाँ प्राइमरीशाला, डाकखाना व पुलिस थाना है । एक नये बगीचे में एक कुआं बहुत कारीगरी से बनाया गया है। " जमींदारी के पूर्वी हिस्से में रबी की फसल पैदा होती है, पश्चिमी हिस्सा पथरीला है, उसमें ज्वार और अन्य खरीफ की फसलें पैदा करते हैं। मुख्य उपज कोदों, कुटकी, गेंहू रुपये और तिलों की हैं। जमींदारी की आय 23574 मानी गई है, इसमें से 8000 रुपये सरकारी टकौली और 893 अबवाब के देने पडते हैं। इस जमींदारी में से पंडरिया सड्क गई है। लोहारा में बुधवार, चारभाटा में गुरुवार और बछेडों में हर मंगलवार व शनिवार को बाजार भरते हैं।

सहसपुर गाँव Sahaspur Village
एकड या मील मनुष्य संख्या 463--यह गाँव दुर्ग से प्राय: 60 मील , व राजनांद गाँव से 62 मील पर है। कहते हैं कि गाँव का नाम हैहयवंश के आदि पुरुष सहस्नार्जुन के नाम पर से निकला है। यहाँ एक बडा तालाब है जिसके किनारे एक मूर्ति हैं, जो सहस्नार्जुन की बतलाई जाति है। इस मूर्ति के नीचे खुदे हुए लेख में कलचुरि सम्वत् 937 (सन् 1182) दिया हुआ है। लेख में राजा यशोराज रानी लक्ष्मी देवी और उनके पुत्र कुमार भोजदेव व राजदेव व कुमारी जासल्लादेवी का उल्लेख है।
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सिलहटी जमींदारी Silhati Zamindari
यह बेमेतरा तहसील में एक छोटी सी जमींदारी है। इसका क्षेत्रफल 53 वर्गमील है। पश्चिमी भाग भाटा है, परंतु पूर्वी भाग की जमीन डोरसा और कन्हार है, जिसमें उपज अच्छी होती है । जमींदारी में 30 गाँव है। लगभग 24 वर्गमील में जंगल है, जिसमें सरई, साज, व हर्रा आदि बहुत हैं।यह जमींदारी पहले गंडई जमींदारी में शामिल थी। जनसंख्या 4607 है। इस जमींदारी में सिलहटी खास को छोड और दूसरा कोई प्रसिद्ध गाँव नहीं है । यह दुर्ग से 50 मील व नांदगाँव से 51 मील पर है । जनसंख्या सन् 1911 में 725 थी । यहाँ एक प्राइमरीशाला है। हर शुक्रवार को बाजार भी भरता है। यहाँ की मुख्य फसलें कोंदों, कुटकी, गेहूँ और चावल है। जमींदारी की आय 5770 रुपये कूटती गई थी, जिसमें से 1790 रुपये टकौली और 201 अबवाब देने पडते हैं।
सोरर Sorar
रकबा 1309, मनुष्य संख्या 815- संजारी तहसील में बालौद से 9 मील पूर्व में है। यहाँ के खंडहरों आदि के देखने से पता चलता है कि किसी समय यह प्रसिद्ध स्थान रहा होगा। यहाँ बडे-बडे पत्थरों की कतार है। इन पत्थरों के आसपास चबूतरे बने हैं । रायबहादुर हीरालाल साहब का मत है कि ये प्राचीन समय की कब्रें हैं। अन्यत्र भी ऐसी कब्नें पाई जाती हैं । भेद केवल इतना है कि सोरर की कब्रों के बीच में खडे खंभे हैं, जो कदाचित् वंश के | मुख्य पुरुष के सूचनार्थ लगाए गए हों । छत्तीसगढ में इस तरह के पत्थर और कहीं नहीं पाये जाते। कहते हैं कि पहले सोरर एक राजा की राजधानी थी। किंवदंती है कि एक राजा बाज से शिकार खेल रहे थे। उनका बाज उड गया।  ये पीछे हो लिये और एक कलारिन के घर पर पहुँचे । उसने इन्हें थके देखकर कहा कि आप रात को विश्राम करो, क्योंकि आप का राज्य यहाँ से बहुत दूर है। राजा ठहर गये पर इस स्त्री पर अनुरक्त हो गए और उससे विवाह कर लिया। उसके पुत्र हुआ, जिसका नाम छछान-छाड रखा गया। यह लडका बडा शूरवीर एवं योद्धा निकला और अपने समीपवर्ती सभी राजाओं व सरदारों को जीत डाला। वह जिनको हरा देता था, उनकी रानी या कुमारियों से अपना विवाह कर लेता था। इस तरह होते-होते उसके 160 रानियाँ हो गयीं । इनसे वह खलबट्टों में चावल कुटाया करता था। अभी सोरर के पत्थरों में 160 छिद्र विद्यमान हैं । छछानछाडू बडा लम्पट था। वह किसी से भी उलझ पडता था। यह देखकर उसकी माँ बहुत डर गई । उसको सिवाय उसके नष्ट कर देने के दूसरा उपाय न सूझा। तब उसने उसे बहुत प्यास लाने वाला भोजन खिलाया। जब छछानछाड पानी पीने के लिए कुएँ पर गया, तब उसने उसे ढकेल दिया और आप भी खंजर मार कर मर गई । सोरर में आज भी एक मूर्ति खंजर लिये बतलाई जाती है, जो कहते हैं, उसी कलारिन की है। छछानछाड की सोरर व आसपास के गाँवों में पूजा होती है। लोग कहते हैं कि यहाँ सोरा (सोलह) मुहल्ले थे, इसलिए गाँव का नाम सोरर रखा गया। किसी-किसी का कथन है कि इसका प्राचीन नाम सरहरागढ था, जिसका जिक्र राजिम के शिलालेख में किया गया है।

संजारी तहसील Sanjari Tahasil
दुर्ग जिले की दक्षिणी तहसील है। जब दुर्ग का नया जिला बना, तब रायपुर जिले की दुर्ग व चमतरी तहसीलों से कुछ गाँव लेकर यह तहसील बनायी गई । रकबा इसका 2015 वर्गमील अर्थात् जिले का लगभग है। इसमें से 174 वर्ग मील सरकारी जंगल है । तहसील का सदर मुकाम बालौद है। यह गाँव दुर्ग से 35 मील पर है। इस तहसील के बालौद और रायपुर कमी बलौदा बाजार नाम की तहसील में भ्रम होने के भय से इस तहसील का नाम संजारी रखा गया है। संजारी तहसील के उत्तर में दुर्ग तहसील, दक्षिण व आग्नेय में रायपुर जिला नैऋत्य व पश्चिम में चांदा जिला और वायव्य में राजनांदगाँव है। तहसील का दक्षिणी व पश्चिमी हिस्सा पहाडी है । उत्तरीय व पूर्वीय भाग समान है। शिवनाथ नदी इस तहसील के पश्चिमी कोने से होती हुई गई है। खारून नदी ईशान कोण से होकर बही है। तान्दुला नदी तो इस तहसील के उत्तर से दक्षिण तक बालौद गुंडरदेही आदि गाँवों से होती हुई गई है। तहसील के दक्षिणी कोने से सूखा नामक एक जंगली नाला बहता है, जो कि बालौद के पास तान्दुला नदी में मिल गया है । तान्दुला से नहरें निकाली गई हैं, जो दुर्ग के बहुत से भाग की आवपाशी करेंगी। महानदी भी कुछ दूर तक इस तहसील की हद बनाती हुई बही है।
तहसील की जनसंख्या सन् 1911 में 2,61,500 निकली। सन् 1901 में 2,26,108 थी। सन् 1911 में इस तहसील की जमींदारियों की जनसंख्या 5,0718 थी। कुल तहसील में 1051 गाँव आबाद हैं। सन् 1911 में जिन गाँवों की जनसंख्या 1000 से ऊपर थी, वे ये हैं, अम्बरागढ चौकी, अरकार, कंवर, कनेरी, डोंडी मलारी, फादफोड, बड्गाँव, माधोप्रसाद, बालौद खास, लोहारा और सम्बलपुर ।
बालौद के आसपास की भूमि अत्यंत उर्वरा है, समान मैदानों की मिट्टी भी उपजाऊ है, पर इस तहसील में पीली पथरीली किस्म की बहुतायत है। चावल तो खेतों मे बधियाँ बाँध कर पैदा किया जाता है और जहाँ की जमीन कल्हार व डोरसा है, वहाँ दोनों फसलें तैयार की जाती हैं। मुख्य फसल चावल है, कोदों कुटकी, मूंग, उडद, अलसी अन्य मुख्य फसलें हैं। आवपाशी की जमीन पर चना, बटरा आदि भी बोते हैं। चना आदि चावल के खेतों में चावल काट लेने के बाद बोते हैं। इसको उतेरा कहते हैं। बराही, तम्बाकू कपास, मसूर आदि भी होते हैं। इस तहसील की सरकारी जमा (140950) है। इस तहसील में 6 रेवेन्यू इन्सपेक्टर हैं। वे चौकी मोहाला, चिखली, बालौद, भंडेरा व गुरूर में रहते हैं। कुल पटवारी 122 हैं, फी रेवेन्यू इन्स्पेक्टर के हलके में औसत 20 पटवारी व 178 गाँव पडते हैं। पुलिस थाने 7 हैं, वे बालौद, गुरूर, पिनकापार, डोंडी लोहारा, अम्बागढ चौकी और मोहाला में हैं। कुल मदरसे 68 हैं।
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संजारी गाँव Sanjari Village
रकबा 1560, मनुष्य संख्या 937 । संजारी तहसील में दुर्ग से लगभग 29 मील पर एक छोटा सा गाँव है। इस गाँव के नाम पर से तहसील का नाम रखा गया है। तहसील का सदर मुकाम बालौद में है। रायपर जिले में एक बालौदा बाजार नाम की तहसील है । कहीं बालोद और बलौदा में भ्रम न पड जाए, इसलिए तहसील का नाम बालौद न रख के संजारी रख दिया गया है। यह गाँव केवल इसी नामकरण के कारण प्रख्यात हो गया है।

दुर्ग दर्पण, इंटरनेट में ज्ञान के प्रचार-प्रसार के उद्देश्‍य से प्रकाशित किया जा रहा है। इसमें टायपिंग त्रुटि हो सकती है कृपया मूल किताब के लिए छ.ग.हिन्‍दी ग्रंथ अकादमी की पुस्‍तक देखें। - सं. 

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