जहॉं नहीं चैना, वहाँ नहीं रहना : किशोर कुमार

किशोरकुमार की संगीत यात्रा कब से शुरू हुई, कोई नहीं जानता। किसी को याद है वह नौजवान जो इंदौर के क्रिश्चियन कॉलेज में अपनी पढाई के दिनों में के. एल. सहगल के गीत गाकर समां बाँध दिया करता था, तो कुछ ऐसे भी हैं जिन्हें उस बालक का भी स्मरण है जो स्कूल के जमाने में  एक साथ सात-सात गोल्ड मैंडल जीत कर शरमाता-शरमाता घर लौटता था। आगे चलकर कितनी फिल्मों के लिए कितनी गोल्ड डिस्कें इसी किशोरकुमार  के बंगले की शोभा बनीं, बहुत कम लोगों को मालूम है। क्योंकि किशोर के मन में अपनी  किशोरावस्था का वही मासूम किशोर सदा जमा बैठा रहा जो हर सफलता को विनम्रता और झिझक के साथ स्वीकार करने के बाद, प्रचार से दूर, अपनी साधना में पुन: लगन से लग जाने को ही श्रेष्ठ समझता था।
कहते हैं हीरे की परख जोहरी ही कर सकता है। इस हीरे को पहचानने वाले जौहरी थे संगीतकार खेमचंद प्रकाश। सर्वप्रथम उन्होंने ही बाँबे टॉकीज की फिल्म "जिद्दी के लिए किशोरकुमार का चुनाव करके उनसे दो गीत गवाए थे। उनका पहला गन्ना लता मंगेशकर के साथ युगलगान के रूप में था. जिसके बोल थे, 'ये कौन आया.... Ye kaun aaya raushan ho gai' इसी फिल्म में उन्होंने  जो गीत अकेले गाया था वह आज भी संगीत प्रेमियों के जबान से नहीं उतरता 'मरने की दुआएँ क्यों माँगू, जीने की तमन्ना कौन करे... Marne ki duvayen kyon mangu, Jine ki tamanna kaun kare।'

यह गाना देव आनंद Dev Aanand पर फिल्माया गया था और तब सुर, लय, ताल की जो गंगा बहनी शुरू हुई थी उसकी शीतल सुमधुर धार में न जाने कितने संगीतकार, कितने निर्देशक, कितने अभिनेता तृप्त होते चले गए। आश्चर्य होता है यह देखकर कि किस प्रकार किशोरकुमार अपने से कहीं कम उम्र के नायकों के लिए भी इतना जीवंत पार्श्वगायन प्रस्तुत करने में सदा सफल रहे जो दर्शक को फिल्म देखने के बाद भी उस कलाकार के ही स्वर में उभरता मालूम होता था और अभिनीत चरित्र की सारी संवेदनाओं को साकार करता रहा। लेकिन संवेदनाओं की यह तीव्रता किशोरकुमार में अचानक किसी एक दिन में नहीं जाग गई। अत्यंत कोमल मन था उनका, जिस पर जरा-सी ठेस से आँच आ जाए। लेकिन दुनिया अपनी रफ्तार, अपने ढंग से चलती है।

किसी की भावनाओं -से उसका कुछ लेना-देना नही होता। बहुत जल्दी ठोकरों ने यह सबक किशोर को सिखा दिया था और तभी उन्होंने तय कर लिया था कि अगर फिल्म उद्योग में सफलता के संघर्ष में टिके रहना है, तो कोमल भावनाओं को एक आवरण में सुरक्षित रखना होगा। तभी से उन्होंने मन पर मस्ती का मुखौटा चढाया और दर्द को समेटे हुए आजन्म जिंदादिली बाँटते रहे। इस मुखौटे के पीछे झाँकने और दर्द को सबल अभिव्यक्ति दे सकने वाले कलाकार को पहचानने की कोशिश जिन निर्देशकों ने की, उन्होंने किशोरकुमार के साथ सुंदर सशक्त फिल्में बनाई।
सन् 1952 से लेकर 1970 तक के साल फिल्म इतिहास में इस बात के गवाह वन कर खडे़ हैं कि अभिनय के स्कूल या एक नियत छवि जैसे दायरों में बंद चलन को तोड़ कर उन्मुक्त अभिनय का जो प्रदर्शन उन्होंने किया था, उसने उनके सभी समकालीनों को धूमिल कर रखा था, जिनमें अभिनय-सम्राट कहे जाने वाले दिलीप कुमार Dilip Kumarभी शामिल थे।

किशोर के बडे़ भाई, प्यार से दादा मुनि Dada Muni और आदर से अभिनय का स्कूल कहे जाने वाले अशोक कुमार Ashok Kumar को टक्कर दे सकना बडे़-बडे़ कलाकारों के लिए संभव नहीं हुआ,  लेकिन जिन्होंने सत्येन बोस Satyen Boss द्वारा निर्देशित फिल्म बंदी देखी है, वे जानते हैं कि फिल्म के  अंतिम दृश्यों में किशोर के प्रबल, हृदयस्पर्शी अभिनय ने एक-बारगी अशोकुमार के अभिनय को पीछे छोड़ जो नई ऊँचाइयाँ स्थापित कर दी थी, वहाँ तक कम कलाकार पहुँच पाए हैं। यह फिल्म 1957 में बनी थी और इसमें नायिका थीं बीना राय Bina Roy। मध्यांतर तक फिल्म में किशोर का एक रूप था, उछलकूद और मस्तीभरा, लेकिन मध्यांतर के बाद  की गंभीरता ने दिल हिला दिए थे। दर्द को अभिव्यक्ति दे सकने की उनकी सामर्थ्य सन् 57 में भी उतनी ही सशक्त थी, जब उन्होंने रात को रोती गरीब बच्ची को बहलाते हुए जमाने  की सच्चाई उजागर करते गाने का दर्द साकार कर दिखाया था..'चुप हो जा, अमीरों की ये

सोने की घड़ी है, तेरे लिए रोने को तो उम्र पड़ी है...। ऐसे कोमल क्षणों से भरपूर उनकी अभिनय यात्रा के पड़ावों की सूची लंबी है। यहाँ सिर्फ स्वर्ण जयंती फिल्मों न्यू दिल्ली (निर्देशक: मोहन सहगल 1957), भाई भाई (निर्देशक: एम.बी. रामन 1956) को गिनाना पर्याप्त है। रजत जयंती मनाने वाली फिल्में थीं-अधिकार (मोहन सहगल ), चलती का नाम गाड़ी (Chalti ka nam gadi सत्येन बोस ), लड़की (एम. वी. रामन ) , पहली झलक (एम. बी. रामन),  प्यार किए जा (श्रीधर ), दिल्ली का ठग (Dilli ka thag एस. डी. नारंग ), इल्जाम (आर. सी. तलवार RC Talwar), चंदन (एम.बी. रामन ) ,बेवकूफ (आई.एस. जौहर IS Jauhar) तथा शरारत (एच. एस. रवेल HS Ravel)।

यूडलिंग किशोरकुमार की वह विशेषता थी जिसे उनकी नकल करने वालों में से कोई पकड़ नहीं पाया, इसके लिए किशोर स्वयं को कोई माहिर उस्ताद नहीं मानते थे। 'बात सिर्फ सुर पकड़ने की है; वे कहते थे- ''बडे़-बडे़ कलाकार हैं जो बहुत कुछ कर गए हैं। उन्हें सुनिए। आपकी लगन सच्ची है तो स्वयं आपको प्रेरणा मिलेगी, स्वयं राह सूझने लगेगी। लेकिन जब तक सिर्फ नकल करने पर जोर रहेगा तब तक अपनी पहचान अलग बना पाना नामुमकिन ही होगा।''

एक ओर यूडलिंग तो दूसरी ओर रवींद्र संगीत, किशोरकुमार के स्वर की विविधता का विस्तार विलक्षण रहा। सभी जानते हैं कि रवींद्र संगीत में नोट काफी कठिन होते हैं। इसके साथ ही बंगाली इसके प्रति अत्यधिक भावुक भी हैं। गायक जब तक उन्हें तपा सघा नहीं लगता, तब तक न तो संगीतकार उसे गवाएगा न जनता उसे सुनेगी। पाश्चात्य रंग से रंगे गीतों को रवानी देने वाले किशोरकुमार रवींद्र संगीत भी इस खूबी से गा चुके हैं कि उनका रिकॉर्ड हाथों हाथ बिका, अत्यधिक लोकप्रिय हुआ।

स्व. खेमचंद प्रकाश Khemchandra Prakash से लेकर आज के नवीनतम संगीतकारों तक में से, हर किसी के साथ किशोर ने अलबेले गीतों की लडि़याँ पिरोई हैं। संगीतकारों में इसका एकमात्र अपवाद हैं नौशाद Naushad। न जाने किशोर की कला का लाभ उठाने से वे कैसे चूक गए। बहुत कम लोगों का ध्यान इस तथ्य की ओर जाता है। ऐसी ही एक और जानकारी कम लोगों को है कि गायक किशोरकुमार अपनी फिल्मों के अलावा, बाहर की एक बड़ी फिल्म के लिए संगीत निर्देशन भी कर चुके हैं। यह फिल्म थी मद्रास के निर्माता निर्देशक वीरप्पन की जमीन-आसमान। जिसके प्रमुख सितारे अशोककुमार, सुनील दत्त और रेखा थे।
जीवन के अंतिम वर्षों में उनमें एक तरह का  विरक्ति भाव जागने लगा था। फिल्म संगीत की स्थितियों से तो वे नाखुश थे ही, जीवन की क्या निस्सारिता और मौत के सामने मनुष्य की मजबूरी को बार-बार दोहराया जाता देख भी उन्हें कुछ वैराग्य सा होने लगा था। भाभी यानी श्रीमती अशोककुमार की मृत्यु ने इस भाव को और भी गहरा कर दिया था। इसीलिए वे बार-बार बंबई छोड़ खंडवा भाग जाने और वहाँ एकांत जीवन बिताने की कल्पनाओं में डूब जाया करते थे। जिस एक घटना ने उन्हें और बहुत विचलित किया था, वह उन्होंने शुरू ही मुझे सुनाई थी।
श्रीमती अशोककुमार की मृत्यु के बाद तीसरा दिन था वह। दादा मुनि यानी अशोककुमार ने किशोर को बुलाया और खाली आँखें देखते हुए बहुत धीमे स्वर में कहा, ''जरा वह गाना तो सुना, 'जिदगी का सफर एक ऐसा सफर... Jindagi ka safar ek ausa safar।'' मैंने गाना शुरू किया। लगा कि दादामुनि काँप रहे हैं। फिर उन्होंने मेरा हाथ कस कर पकड़ लिया। वे जाने कहाँ थे, क्या सोच रहे थे। मैं चुप हो गया।' गाता रहा उन्होंने जैसे आदेश दिया।
गाना खत्म हुआ तो उन्होंने हाथ छोड़ कर कहा, 'यह गाना इसी तरह टेप करके मुझे दे देना, और तुरंत दूसरे कमरे में चले गए। मैं समझ गया, वे मेरे सामने रो नहीं सके होंगे...!! और यह घटना सुनाने के बाद ही उन्होंने कहा था, "मुझे कई पुरस्कार मिले है लेकिन वह पुरूस्कार मुझे 'कोई नहीं दे सका जो कभी हिदुस्तान का सबसे गरीब आदमी देता है तो कभी सबसे परेशान। यह इनाम है- खुशियों भारी एक मुस्कान। संगीत एक ऐसी ताकत है जो इन्सान के सब भेदभावों को भुला कर उन्हें एक कर देती है।

सुख-दुख तो अमीर-गरीब, छोटे-बडे़ सभी पर एक समान आते है। बेचैनी के क्षणों में जब कोई अपने दिल की भावनाओं की छाया मेरे गाए किसी गाने में पा जाता है और सुख या दुख किसी भी मौके पर उसे गुनगुना कर, अपना जी हल्का करके भावनाओं में बहता मुस्करा उठता हैं तो मुझे लगता है कि दुनिया की हर नियामत मिल गई। वही क्षण मेरे जीवन में सबसे बड़ी खुशी के क्षण  होते हैं जो मुझे लगातार गाने की हिम्मत दिए जाते हैं। लेकिन फिल्म उद्योग में काम की दशाएँ तथा फिल्मी गीत जिस स्तर पर आ गए हैं उनसे मैं बहुत दुखी हूँ। फिल्मों में गाना गाने का सबसे पहला मौका मुझे दिया था स्व. खेमचंद प्रकाश जी ने। वे एक गाने की एक-एक हफ्ते रिहर्सल कराते थे। <b>एक-एक बोल, एक-एक मुरकी, स्वर के एक-एक उतार चढाव पर घंटों मेहनत करनी पड़ती थी, तब जाकर गाने में वह जादू उभरता था जो सुनने वालों के सिर चढ़ कर बोलता था।</b> उनके बाद के उन सभी संगीतकारों के साथ भी मैंने इसी तरह का काम किया जिनका नाम आज सभी आदर के साथ लेते हैं। स्व. सचिनदेव बर्मन जी Sachin deo Barman, मदनमोहन जी Madan Mohan, रोशन जी Roshan, खेमचंद प्रकाश Khemchandra Prakash साहब आदि। वे लोग खुद भी बेहद मेहनत करते से भी करवाते थे। लेकिन आज होता यह है कि सुबह फोन आता है कि कल रिकॉडिंग के लिए आ जाइए। शाम तक उस गाने का टेप आता है जो सुबह गाना है। तब भला किस वक्त रिहर्सल करें, कब शब्दों की बारीकियाँ समझें, उतार चढाव सम्हालें? इस तेज रफ्तार और भागमभागी के कारण ही वैसे गीत नहीं बनते जिन्हें गाने में कोई कला दिखानी पडे़, कोई परिश्रम होता हो। मैं यह समझ नहीं पाता कि जिस गीत को गाने में मैं खुद संतुष्ट नहीं हो पा रहा उसके जरिए मैं दूसरों को कैसे संतुष्टि दे बसे, इसी असंतोष के कारण मैंने फैसला किया है कि मुझे अब रिटायर हो जाना चाहिए।'
सफलता, असफलता, पैसा, प्यार, जिदगी, मौत सभी कुछ बहुत देखा किशोरकुमार ने। इसीलिए एक बार मैंने उनसे पूछा था, 'इतना सब देख लेने के बाद भगवान पर आपकी आस्था बढ़ी 'है या कम हुई है?' उन्होंने जो जबाब दिया था उसमें उनका पूरा दृष्टिकोण उभर आया था, उन्होंने कहा था, 'भगवान शब्द तो इन्सान का गढ़ा हुआ है, किसी कल्पित भगवान पर मेरी श्रद्धा नहीं होती, जो मुझे दिखता नहीं, उसे मैं मानू कैसे? हाँ, उस पर मेरा विश्वास जमता है जिसे मैं खुद देखता हूँ- यह धरती, यह आसमान, यह सूरज, यह चाँद सितारे।'' ''आपको सबसे प्रिय क्या है?' ''यह जिदगी,'' ,किशोरकुमार को जवाब सोचना नहीं पड़ा था। ''इस जिदगी से खूबसूरत और कोई चीज नहीं। मैं यह नहीं मानता हूं कि मरने के बाद कहीं स्वर्ग या नरक मिलेगा। जो कुछ है, यहीं है। अच्छे-बुरे हर कर्म का फल यहीं मिल जाता है। मेरा कर्म है मेरा संगीत। मैं उसे ईमानदारी से निभाए जाता हूँ। इसी से खुश रहता हूँ और यह कोशिश करता हूँ कि इसके जरिए दीन-दुखियों की जितनी सेवा हो सके करूँ। इसके अलावा जिदगी में कोई चाह बाकी नहीं है।''

-विनोद तिवारी 
(टाइम्स ऑफ इंडिया प्रकाशन समूह की पत्रिका  हिदी फिल्म फेअर के संपादक)
नई दुनिया फिल्‍म वार्षिकांक जून 1989 'सरगम का सफर' से साभार) 
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