डॉ. बल्देव : एक जीती-जागती संस्था

 बहुत से व्यक्ति किसी विधा-विशेष में दक्ष होते हैं, उन्हें हम उनकी विशेष विधा के कारण पहचानते हैं। कुछ व्यक्ति अनेक विधाओं में दक्ष होते हैं, उन्हें हम बहु-आयामी प्रतिभा के रूप में जानते हैं। बहुत से प्रतिभा-सम्पन्न व्यक्ति केवल अपनी प्रतिभा के प्रचार-प्रसार में अपना जीवन समर्पित कर देते हैं, उन्हें हम आत्म-मुग्ध व्यक्ति के रूप में जानते हैं। कुछ व्यक्ति ज्ञान का भंडार होने के बावजूद अपने अंचल की प्रतिभाओं को उदारतापूर्वक पहचान देते हैं और अपने सरल व्यवहार से सबके दिलों पर राज करते हैं, ऐसे व्यक्तियों को हम सिर्फ जानते और पहचानते ही नहीं बल्कि दिल से उनका सम्मान करते हैं। उपलब्धि, उदारता और सरलता का संगम विरले व्यक्तियों में ही पाया जाता है। ऐसे व्यक्तित्व, व्यक्ति-मात्र न रह कर "संस्था" के रूप में सम्मान पाते हैं। 27 मई 1942 को चाँपा जिले के ग्राम नरियरा में जन्मे डॉ. बल्देव ऐसे ही विलक्षण व्यक्तित्व हैं जिन्हें "संस्था" कहना किसी तरह की अतिशयोक्ति नहीं होगी।

डॉ. बल्देव का हिन्दी और छत्तीसगढ़ी भाषाओं में गद्य और पद्य, दोनों ही विधाओं पर समान अधिकार था इसके बावजूद वे आत्म-मुग्धता में नहीं जीये। उन्होंने अंचल की नवोदित प्रतिभाओं से लेकर प्रतिष्ठित विभूतियों को भी विशिष्ट पहचान दी। डॉ. बल्देव ने पं. मुकुटधर पाण्डेय के काव्य पर शोध करके राष्ट्रीय स्तर पर अपने तर्कों द्वारा उन्हें छायावाद के प्रवर्त्तक के रूप में स्थापित कर दिया। उन्होनें पं. मुकुटधर पाण्डेय की यत्र-तत्र बिखरी हुई रचनाओं का बड़े परिश्रम से संग्रह करके उन्हें पुस्तक का आकार प्रदान किया। "विश्व-बोध" में पं. मुकुटधर पाण्डेय की प्रतिनिधि कविताओं के साथ ही डॉ. बलदेव के श्रम-सीकर भी हीरक-कानों की तरह दमक रहे हैं और यह पुस्तक साहित्य जगत के लिए अनमोल उपहार बन गयी है। "छायावाद एवं अन्य श्रेष्ठ निबंध" किताब में पं.मुकुटधर पाण्डेय जी के युगात्मकारी लेखों का संग्रह डॉ. बल्देव के संपादन में हुआ है। जनकवि पं. आनंदी सहाय शुक्ल पर केंद्रित किताब ढाई आखर उनके ही संपादन में जन मानस तक पहुँच पायी।
डॉ. बल्देव में संपादन में "छत्तीसगढ़ी कविता के सौ साल" सन् 2011 में वैभव प्रकाशन,रायपुर से प्रकाशित हुई। इस किताब में लगभग 182 कवियों की न केवल प्रतिनिधि रचनाएँ हैं बल्कि प्रत्येक कवि का संक्षिप्त परिचय भी उपलब्ध है। अलग-अलग कालखण्ड के कवियों की कविताओं को विरासत, सुरता के चंदन बन ,गीत-गजल, मुक्त छन्द के नवा अउ समकालीन कविता, अक्षत दूबी , हरियर डारा और उल्हवा पाना जैसे मनभावन अध्याय-शीर्षको में विभक्त किया गया है। लगभग साढ़े पाँच सौ पृष्ठों की इस अनमोल किताब को ग्रन्थ कहना किसी तरह की अतिशयोक्ति नहीं होगी। 182 कवियों की कविताओं का उनके परिचय के साथ संकलन करना कितना दुश्कर कार्य है, इस बात का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। "छत्तीसगढ़ी काव्य के कुछ महत्वपूर्ण कवि" 242 पृष्ठों की यह किताब सन् 2013 में वैभव प्रकाशन, रायपुर से प्रकाशित हुई थी। इसमें कुछ महत्वपूर्ण कवियों की कविताओं पर डॉ. बल्देव की विस्तृत समीक्षात्मक लेखों का संकलन है जो लोकाक्षर तथा अन्य पत्र-पत्रिकाओं में पूर्व में प्रकाशित हो चुके हैं।
हाथरस से प्रकाशित "संगीत-मासिक" पत्रिका में "कत्थक रायगढ़ घराना" शीर्षक से डॉ. बल्देव के लिखे लेख के कारण ही रायगढ़ के कथक घराना को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिली। इन्हीं सुप्रयासों से रायगढ़ दरबार के मूर्धन्य कलाकार शिखर सम्मान से सम्मानित भी हुए।
इन सारी विशेषताओं के ऊपर सबसे बड़ी विशेषता उनकी जा रहे उन्होंने छत्तीसगढ़ में जन्मे प्रतिभाओं को रेखांकित किया है उनकी उपलब्धियों को स्थापित किया है और अपनी समीक्षा के द्वारा कई रचनाकारों को उन्होंने एक पहचान दी लोगों ने उनके सीधेपन का दुरुपयोग भी किया। धरती सब के महतारी उनका छत्तीसगढ़ी काव्य संग्रह है जिसमें उन्होंने उत्कृष्ट छत्तीसगढ़ी कविताओं का सृजन प्रकाशित किया है। इन कविताओं में मुहावरे और लोकोक्तियों का प्रयोग देखते ही बनता है। "वृक्ष में तब्दील हो गई औरत", डॉ. बल्देव जी की हिन्दी कविताओं का संग्रह है। इस संग्रह में नए बिम्ब, लेखन का शिल्प और नव-प्रयोग नवोदित कवियों के लिए प्रकाश-स्तंभ की तरह हैं। यही सारी विशेषताएँ उनकी एक अलग ही पहचान बनाती हैं।
डॉ. बल्देव केवल साहित्य, समीक्षा तथा संगीत तक ही सीमित नहीं थे। वे एक अत्यंत ही संवेदनशील व जागरूक नागरिक भी थे। वे छत्तीसगढ़ की उपेक्षा से बहुत व्यथित रहते थे। विशेषकर शिक्षा के क्षेत्र में छत्तीसगढ़ का पिछड़ापन उन्हें बहुत दुखी कर देता था। उन्होंने अपने स्तर पर काफी प्रयत्न किए। सीमित आय वाले एक अध्यापक होने के बावजूद उन्होंने कुछ प्रतिभाशाली विद्यार्थियों को अपने खर्चे से पढ़ाया। शोधार्थियों के लिए तो उनके द्वार हमेशा खुले रहते थे।
वैभव प्रकाशन, रायपुर से सन् 2003 में प्रकाशित लक्ष्मण मस्तुरिया जी के छत्तीसगढ़ी गीत संग्रह "मोर संग चलव" के प्रारंभ में डॉ. बल्देव द्वारा लिखी गयी 10 पृष्ठों की भूमिका है। इस किताब में गीत खण्ड के बाद लक्ष्मण मस्तुरिया जी की कालजयी कृति "सोनाखान के आगी" भी प्रकाशित है। किताब के अंत में डॉ. बल्देव द्वारा लिखित समीक्षात्मक भूमिका "युगाचारण : कवि लक्ष्मण मस्तुरिया" 15 पृष्ठों में प्रकाशित है। इन दोनों भूमिकाओं को पढ़ कर ही मैंने डॉ. बल्देव का परिचय प्राप्त किया। मुझे उनसे मिलने का सौभाग्य कभी भी नहीं मिला किन्तु लक्ष्मण मस्तुरिया जी उनकी बहुत प्रशंसा किया करते थे और मैं जानता था कि मस्तुरिया जी यदि किसी की प्रशंसा मुक्त-कंठ से कर रहे है तो निस्संदेह वह विभूति असाधारण व विलक्षण ही होगी। मुझे डॉ. बल्देव जी के सुपुत्र श्री बसन्त राघव साव जी से उनका कुछ साहित्य पढ़ने को मिला और मुझे अपने उद्गार प्रकट करने का सुअवसर प्राप्त हुआ। आज डॉ. बल्देव जी की पुण्यतिथि पर शत शत।
अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)

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