जनकवि लक्ष्मण मस्तुरिया का हिन्दी साहित्य संसार

 श्री लक्ष्मण मस्तुरिया को अधिकांश लोग छत्तीसगढ़ी भाषा के जनकवि, गीतकार और गायक के रूप में ही जानते हैं। बहुत कम लोगों को ही पता है कि वे हिन्दी भाषा में भी उत्कृष्ट कविताएँ रचा करते थे। उनकी हिन्दी रचनाओं का काव्य-संग्रह "सिर्फ सत्य के लिए" सन् 2008 में प्रकाशित हुआ था। प्रकाशक थे - सृजन सम्मान, माध्यमिक शिक्षा मंडल, आवासीय परिसर रायपुर छत्तीसगढ़। आवरण चित्र मस्तुरिया जी के अनुज श्री मोहन गोस्वामी ने तैयार किया था। इस काव्य संग्रह के मुद्रक एवं वितरक वैभव प्रकाशन रायपुर थे।

आज हम लक्ष्मण मस्तुरिया जी के एक दूसरे रूप से आपका परिचय कराने जा रहे हैं। लक्ष्मण मस्तुरिया जी का हिन्दी भाषा पर भी समान अधिकार था। उन्होंने हिन्दी में अतुकांत कविताएँ, गीत, मुक्तक और गजलों का भी उत्कृष्ट सृजन किया है। सत्तर के दशक में जब वे बुलंदी पर थे, उस दौर में अखिल भारतीय कवि सम्मेलन के मंचों से देश के अलग-अलग शहरों में वे हिन्दी में गीत सुनाने थे तो मंच के कुछ हिन्दी-भाषी गीतकारों ने उनसे कहा था कि भाई लक्ष्मण! आप तो छत्तीसगढ़ और छत्तीसगढ़ी के राजकुँअर हैं। अब हिन्दी में भी गीत गाकर हमें मंचों से वंचित तो न करें। मस्तुरिया जी ने धीरे-धीरे अपने आपको छत्तीसगढ़ और छत्तीसगढ़ी तक समेट लिया। एक प्रसंग और याद आ रहा है, जब वे किसी कविसम्मेलन में मुंबई गए थे तब देश के ख्यातिप्राप्त गीतकार गोपालदास नीरज जी ने उन्हें हेलीकॉप्टर में बिठाकर मुंबई के आकाश की सैर कराई थी। उस दौरान नीरज जी ने कहा था कि तुम्हारी आवाज बहुत मधुर है और बहुत ही उत्कृष्ट गीत लिखते हो यदि तुम चाहो तो बॉलीवुड में जम सकते हो। मेरे कुछ परिचित निर्माता निर्देशक और संगीतकार यहाँ स्थापित हैं, यदि तुम कहो तो मैं उनसे बात करूँ ? किंतु मस्तुरिया जी ने बड़े विनम्र भाव से कहा था कि यहाँ की दुनिया एक मायाजाल है। बड़े-बड़े गायक और गीतकार आए और चले गए। मैं इस मायाजाल में नहीं उलझना चाहता। मैं अपने छत्तीसगढ़ में ही खुश हूँ। ऐसा था उनका छत्तीसगढ़ से प्रेम।
सिर्फ सत्य के लिए की भूमिका में श्री विनोद शंकर शुक्ल लिखते हैं - "मंचीय कविता में आज जाली नोट ज्यादा हैं, असली कवि कम। हिंदी कवि मंच पर आज हास्य का बोलबाला है तथापि मस्तुरिया अपनी गंभीर कविताओं के साथ जमे ही नहीं रहते, बार-बार बुलाए जाते हैं। मंच के साथियों के षड्यंत्र से कभी पराजित भी होते हैं तो दमदार मुक्केबाज की तरह रेफरी के दस तक गिनने से पहले ही उठ खड़े होते हैं। दरअसल जीवन के गहरे अनुभव से तप कर निकली कविताओं को चुटकुलेबाज कवियों की कविताओं के सामने श्रोताओं ने कभी खारिज नहीं किया है। श्रोताओं से बहुत जल्दी आत्मीयता स्थापित करने की असामान्य खूबी उनकी कविताओं में है। अनेक कवि मंचों पर बड़े-बड़े हास्य महारथियों का टाइटेनिक डूबा है लेकिन समय की सच्चाइयों को उद्घाटित करने वाली अपनी छत्तीसगढ़ी और हिंदी कविताओं के साथ लक्ष्मण मस्तुरिया मंच पर मस्तूल की तरह तने खड़े रहे हैं। उनकी इन दोनों भाषाओं की कुछ कविताएँ तो ऐसी हैं जिन्हें दोबारा-तिबारा सुनने या पढ़ने पर उतना ही रस मिलता है जितना पहली बार सुनने या पढ़ने पर। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि लक्ष्मण मस्तुरिया की हिंदी कविताएँ मंचवादी नहीं हैं। वे मुग्ध करने या वाह वाह करवाने के लिए नहीं लिखी गई हैं। वे पाठक या श्रोता को अपने समय और परिवेश की विसंगतियों पर सोच विचार के लिए उत्तेजित करने वाली कविताएँ, विलुप्त होती मनुष्यता की चिंता उनकी मूल धुरी है। समय और समाज की विसंगतियों से कवि की टकराहट के विविध कोणी छायाचित्र उसमें उपस्थित हैं"।
हाथ कंगन को आरसी क्या? आइए उनके हिन्दी में लिखे कुछ मुक्तक, गीत, अतुकांत गीत और गजलों की झलकियाँ देखते हैं -
बेरोजगारी आज का सबसे अभिशप्त यथार्थ है। मस्तुरिया व्यवस्था को दोषी ठहराते हुए अपना आक्रोश इन शब्दों में व्यक्त करते हैं -
कुछ हमें उद्योग दो, है वक़्त की पुकार अब
मुल्क पर भारी पड़ेगा, आदमी बेकार अब।
चाहिए मजबूत रिश्ता, रोटियों का दाँत से
सिर्फ पत्थरों के खजाने की नहीं दरकार अब।
डॉ. शोभकान्त झा ने सिर्फ सत्य के लिए की भूमिका में लिखा है - "सृजन विद्रोहधर्मी भी होता है। वह अन्याय और असत्य के विरुद्ध प्रतिपक्ष की भाँति खड़ा होता है। विसंगतियों, विडंबनाओं, विद्रूपताओं,विकृतियों आदि पर प्रहार करता है। असहमति जताता है। हस्तक्षेप करता है। यथास्थिति वाद को तोड़ता है। नए मूल्यों की प्रतिष्ठा करता है और जायज पुराने को पुरस्कृत करता है। कवि कविता धर्म का निर्वाह करते हुए कहता है" -
वाणी मौन बोले कौन?
पथराई आँखें रोए कौन?
अजब भयावह सन्नाटा
कोई रोता न गाता
प्रजातंत्र की बातें
नेताओं की रंगीन रातें
जनता की झुंझलाहट
व्यथा भरी अकुलाहट
टूट गए सपने।
कहाँ कोई अपने!!
लक्ष्मण मस्तुरिया जी की कविताओं में अव्यवस्था के प्रति उनका विद्रोह स्पष्ट उजागर होता है -
चारों ओर चलन बिक रहा है
असहाय मेरा वतन दिख रहा है
इसका कारण राष्ट्र रतन मिट रहा है
चिंतन और लेखन बिक रहा है।
कुछ इसी तरह का विद्रोह इस मुक्तक में भी झलक रहे हैं -
राष्ट्रहित में सोच की कमी है
स्व-हित की सारी राजनीति है
पाश्चात्य सुरों पर भारतीयता
दिल-ओ-जान से मरी-मिटी है।
01 नवम्बर 2000 को छत्तीसगढ़ एक स्वतंत्र राज्य बना किन्तु हालात यथावत ही रहे तो कवि की पीड़ा का ज्वालामुखी फट पड़ा -
नए राज्य का सपना पूरा कौन करेगा?
राजनीति की सूखी नदी में कौन तरेगा?
कोई जिंदा नहीं दिखता इस मिट्टी की कोख में
शासकों के फंदों से जो गरीब को मुक्त करेगा।
इस मुक्तक के प्रश्न आज भी अनुत्तरित हैं। नए राज्य की स्थापना पर ही उनका एक मुक्तक कहता है -
नए राज्य का प्रथम चुनाव कमल खिल गया
अटल जी का उपकार प्रतिफल भी मिल गया
जब श्रेष्ठी कुमारों को मंत्री बनते देखा तो
ऐसा लगा इस धरती का कलेजा छिल गया।
अब इस मुक्तक की प्रासंगिकता देखिए -
यहाँ बड़ी सुलभ है मदिरा
और दुर्लभ पानी हैं
यह तो कोई चौपट राजा की
चौपट राजधानी है।
लक्ष्मण मस्तुरिया जी की नजरें केवल छत्तीसगढ़ तक ही सीमित नहीं थीं, वे समूचे देश के यथार्थ को अपनी आँखों से देखते थे -
देश आजाद है या बर्बाद
सिर चढ़ बैठा आतंकवाद
प्रगति पर है नित पूंजीवाद
जुल्मी भ्रष्ट्राचारी आबाद।
ये कैसा अपना हिंदुस्तान
जो भूला निज गौरव सम्मान
जहाँ बेबस संसद संविधान
वहाँ जनता का क्या भगवान।
कवि का कर्म श्रृंगार में झूमते-गाते रहना या विरोध के स्वर प्रकट करना तक ही सीमित नहीं है। नयी पीढ़ी को जीने का सकारात्मक संदेश देते हुए सफलता का मार्ग प्रशस्त करना भी उसका कर्म भी है और धर्म भी है -
बढ़ते कदम हों तो उत्कर्ष जीवन
भटके कदम तब तो अपकर्ष जीवन
मिल जाए ध्येय तब तो है हर्ष जीवन
विपदाएँ हों तो है संघर्ष जीवन।
अकेले चलो वन महोत्सव है जीवन
मिलकर चलो तो जगोत्सव है जीवन
रोते चलोगे मृत्युउत्सव है जीवन
गाते चलो आनंदोत्सव है जीवन।
कवि ने मुक्तक की चार छोटी-छोटी पंक्तियों में कविता को यूँ परिभाषित किया है -
कविता करुणा से उपजी
वीर हास्य श्रृंगार जगायी
रौद्र वीभत्स भयानक अद्भुत
शांत वात्सल्य सरसायी।
इस काव्य संग्रह के बारे में डॉ. सुधीर शर्मा कहते हैं - " लक्ष्मण मस्तुरिया के काव्य लेखन में छत्तीसगढ़ के लोक जीवन के प्रति अटूट निष्ठा एवं गहन सामाजिक लगाव आरंभ से ही मौजूद रहा है। महत्वपूर्ण यह है कि अपनी सामाजिक प्रतिबद्धता को रचना में रूपांतरित करते हुए लक्ष्मण मस्तुरिया ने छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक विशिष्टता को भी पोषित किया है। छत्तीसगढ़ की ग्रामीण एवं मेहनतकश जनता के जीवन के सुख-दुख, करुणा-विषाद एवं चहल-पहल को श्री मस्तुरिया ने सार्थक अभिव्यक्ति प्रदान की है। कवि की संवेदना वर्तमान उपभोक्ता संस्कृति, सामाजिक असमानता, व्यक्तिवादी प्रवृत्ति, राजनीति की चरित्र-हीनता और शहर तथा शहरेत्तर जीवन के अलगाव आदि व्यापक फलक का स्पर्श करती है। इन कविताओं में जीवन की कड़ी धूप भी है और शीतल छाँव भी। शहरी जीवन की क्रूरता है तो ग्रामीण जीवन की निश्छलता भी। छत्तीसगढ़ी लोक जीवन में आत्म बोध की चेतना जागृत करने वाले कवि की अभिव्यक्ति हिंदी में भी कमतर नहीं दिखाई देती। गीत, ग़ज़ल एवं कविताओं की प्रायः सभी नई पुरानी विधाओं में कलम चलाई है। हम ऐसे हम समय के ऐसे दौर में हैं जिसमें लेखक और समाज का अंतर्संबंध क्षीण होता जा रहा है। लेखक जन जीवन के अनुभवों से विरक्त हो रहा है। सामाजिक उथल-पुथल का यह दौर हमारी चिर-संचित संस्कृति एकता को भी खतरे में डाल रहा है। लक्ष्मण मस्तुरिया हमारी इसी सांस्कृतिक एकता को आस्था और विश्वास का स्वर प्रदान करते हैं।
लक्ष्मण मस्तुरिया का जन्म मस्तूरी गाँव में हुआ था। बचपन भी गाँव में ही बीता, इसीलिए उन्हें गाँवों से अगाध प्रेम है किन्तु आज गाँवों की दशा देखकर उनका मन बहुत व्यथित हो जाता है -
मेरा गाँव अब गाँव नहीं रहा शहर हो गया है
मेरे सुंदर सपनों का बसेरा खंडहर हो गया है।
तालाब पट गए शांति सिमट गई शोर समुंदर हो गया है मदिरा-मदांध उफन कर बवंडर हो गया है।
लक्ष्मण मस्तुरिया ने अपने गीतों और गजलों को छन्द विधान और बहर से मुक्त रखते हुए ऐसी लयात्मकता से सँवारा कि छन्द विधान और बहर की कमी का कहीं पता ही नहीं चल पाता है। आइए उनकी गजलों के चुनिंदा अशआर पर भी दृष्टिपात करें -
बड़े बड़ों ने खाई मात
हम जैसों की क्या औकात।
साजिश जैसी चली हवाएँ
पुरवाई है झंझावात।
सूरज को है जुगनू से भय
ऐसे बदल गए हालात।
तरस गए हम दो बूँदों को
तुम को डुबा गई बरसात।
जब से किसी आँचल के तलबगार हुए हम
तब से ही कोई बदनाम सागवार हुए हम।
अबरू में समाकर तने कमान सा कभी
पाजेब से मिलकर कभी झंकार हुए हम।
फ़र्ज़ से जो मुकर गए होंगे
जान खोने से डर गए होंगे।
नाम सुनकर मेरा रकीबों के
देवता कूच कर गए होंगे।
जिनकी बुनियाद रेत पर होगी
वो घरौंदे बिखर गए होंगे।
कैसी जिंदादिली है गौर करें
यह हँसी खोखली है गौर करें।
देह बेईमान के अंगारों पर
मोम जैसी गली है गौर करें।
कंठ में गीत की स्वर लहरी हो
कोई उत्सव भरी दुपहरी हो।
कोई गंगा हो सांस में ऐसी
नाव जिस पर सभी की ठहरी हो।
सबके साथ न्याय को समुचित
ऐसी खुली कचहरी हो।
मंच पर बनकर विदूषक आ रहे हैं लोग
वर्जनाएँ भूलकर सब जा रहे हैं लोग।
फेर कर मुँह हर नतीजे को नजरअंदाज कर
अब हवा में सीढ़ियाँ लटका रहे हैं लोग।
ऐसे खामोश हैं दिलजले
लो बिना जैसे मोम गले।
बढ़ गए बेखुदी में चरण
छूट पीछे गये काफिले।
उतरोगे कभी आयु के खुमार की तरह
कब तक जमोगे दोस्त इश्तहार की तरह।
हमको कोई खामोश बियाबान समझना
जो छेड़ दो तो बज उठे सितार की तरह।
मिट्टी में कल तलक जो थे अंकुर सने हुए
अब तने हुए हैं देवदार की तरह।
दर्द की बाकी कमाई रह गई
होंठ पर गीली रुबाई रह गई।
सैकड़ों संवाद आए और गए
कुंडली मारे दुहाई रह गई।
ढह गए सब सर्जनाओं के भवन
उम्र की यह चारपाई रह गई।
ढोल कल तक नाम के पिटते रहे
आज केवल जग-हँसाई रह गई।
एक तोहफा हूं सड़क पर पड़ा हुआ यारो
और दुनिया की नजर में गड़ा हुआ यारो।
रोशनी बाँटने वाले की यह शरारत है
मैं अंधेरे में हूँ सहमा खड़ा हुआ यारो।
एक ही बार टंगे थे सलीब पर ईसा
जन्म लेते ही मैं उस पर जड़ाहुआ यारो।
लक्ष्मण मस्तुरिया के हिन्दी गीतों में उनके विलक्षण शब्द चयन तथा भावों की ऊँचाइयों को अनुभव करने के बाद ही पता चल पाता है कि वे हिन्दी भाषा के उच्चकोटि के कवियों में अपना स्थान सुरक्षित रखते हैं। इस कथन की पुष्टि के लिए उनका एक हिन्दी गीत देखिए -
"नियम एक अवसान है"
व्यर्थ है सब शलभ के उपालम्भ जब
दीप खुद रात भर के लिए जल रहा।
जिंदगी है सुमन एक वीरान का
सिर्फ मन का अधूरा न अरमान है
साँस कब हद से आगे निकलकर गई
देह पर भी नियम एक अवसान है।
आदि से सूर्य उगता क्षितिज पर रहा
जीत तम को न पाया मगर आज तक
दूर मंजिल किधर और मग है कहाँ
भेद पाने न पाई नजर आज तक।
सिर्फ उम्मीद का एक लश्कर लिए
आयु का काफिला राह पर चल रहा
एक पूरा दिवस गुनगुनाते हुए
साँस का हर उजाला दफन हो गया।
वस्त्र सिंगार सा जो बदन पर चढ़ा
व्यंग का रूप बदला कफन हो गया
श्वास जब भी पराजित हुआ श्वास से
हर अदा जिंदगी की दगा दे गई।
उम्र भर जो ठिठोली रही साथ वह
आखरी एक क्षण की सजा दे गई
और जीवन सदा स्वप्न कंचन बना
हर घड़ी मृत्यु के सत्य में ढल रहा।
पाँव बढ़ते रहे लड़खड़ाते हुए
शूल पर शूल अनगिन सफर में चुभे
राह में जब मिली गुनगुनाती कली
दौड़कर सारे कंटक नजर में छुपे।
चार डग पर मिला एक उपवन यहाँ
चार डग बाद विस्तृत बियाबान है
किस डगर किस दिशा में बढ़ाएँ चरण
आदि से एक विभ्रम में इंसान है।
एक अर्थी सजी देखकर आदमी
हाथ मस्तक झुकाये हुए मल रहा
व्यर्थ है सब शलभ के उपालम्भ जब
दीप खुद रात भर के लिए जल रहा।
"सिर्फ सत्य के लिए" काव्य संग्रह में लक्ष्मण मस्तुरिया जी की इकहत्तर रचनाओं का संकलन है। हर रचना एक से बढ़ कर एक है। इस लेख में तो कुछ पंक्तियों की झलक-मात्र ही प्रस्तुत की गयी है। उनकी हिन्दी रचनाओं को पढ़ते समय पाठक किसी और ही धरातल पर पहुँच जाता है। धन्य है जनकवि लक्ष्मण मस्तुरिया जी की लेखनी जिसने छत्तीसगढ़ी और हिन्दी साहित्य को समान रूप से समृद्ध किया है।
अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)

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