07 नवम्बर 1971, ग्राम बघेरा में "चंदैनी गोंदा" का प्रथम मंचन

मैं कल्पना कर रहा हूँ कि चंदैनी गोंदा के संस्थापक दाऊ रामचंद्र देशमुख यदि रवींद्रनाथ ठाकुर के बंगाल के होते या भूपेन हजारिका के असम के होते और इन्हीं राज्यों में प्रथम मंचन हुआ होता तो शायद आज का दिन सांस्कृतिक पुनर्जागरण दिवस या सांस्कृतिक अस्मिता दिवस या स्वाभिमान दिवस या इसी तरह के किसी दिवस के रूप में धूमधाम से मनाया जा रहा होता। कल्पना करके आनंदित होने में कोई बुराई तो नहीं है ? बस कल्पना ही तो है, बिल्कुल निजी कल्पना। फिर भी यूँ लगता है कि काश ! यह कल्पना सच हो जाती। चलो, आलेख लिख कर ही मन को बहला लेता हूँ।

नयी पीढ़ी किसी न किसी बहाने "चंदैनी गोंदा" को जाने तो सही कि चंदैनी गोंदा क्या है ? चंदैनी गोंदा के एकमात्र संस्थापक दाऊ रामचंद्र देशमुख ने इस प्रश्न के उत्तर में कहा था - " चंदैनी गोंदा पूजा का फूल है। चंदैनी गोंदा छोटे-छोटे कलाकारों का संगम है। चंदैनी गोंदा लोकगीतों पर एक नया प्रयोग है। दृश्यों, प्रतीकों और संवादों द्वारा गद्दी देकर छत्तीसगढ़ी लोक गीतों के माध्यम से एक संदेश पर सांस्कृतिक कार्यक्रम का प्रस्तुतिकरण ----- यही चंदैनी गोंदा है। जिन्होंने इसे नाटक नौटंकी या नाचा समझ कर देखा होगा वह अवश्य ही निराश हुए होंगे लेकिन जिन्होंने इसे लोकगीतों पर एक नए प्रयोग के रूप में देखा होगा वह अवश्य ही हर्षित हुए होंगे"।
चंदैनी गोंदा जब प्रारंभ होता था तो कार्यक्रम के मुख्य उद्घोषक सुरेश देशमुख के स्वर में यह पंक्तियां गूंज उठती थी - "हम यह बता देना आवश्यक समझते हैं कि चंदैनी गोंदा कोई नाटक नहीं है और ना ही कोई नाचा गम्मत या तमाशा। वास्तव में एक औसत भारतीय किसान के जीवन को गीतों के माध्यम से प्रस्तुत करने का प्रयास है। हमने छत्तीसगढ़ी लोक गीतों और कविताओं को प्रधान माध्यम बनाया है कुल मिलाकर चंदैनी गोंदा प्रतीकात्मक ढंग से किसान के जीवन का चित्रण है"।
07 नवम्बर 1971 को ग्राम- बघेरा,जिला दुर्ग के दाऊ राम चन्द्र देशमुख ने 36 गढ़ के 63 कलाकारों को लेकर "चंदैनी-गोंदा" की स्थापना की। "चंदैनी-गोंदा" किसान के सम्पूर्ण जीवन की गीतमय गाथा है. किसान के जन्म लेने से लेकर मृत्यु होने तक के सारे दृश्यों को रंगमंच पर छत्तीसगढ़ी गीतों के माध्यम से इस तरह प्रस्तुत किया गया कि यह मंच एक इतिहास बन गया.
आज से 51 वर्ष पूर्व "चंदैनी गोंदा" की प्रथम प्रस्तुति दाऊ रामचंद्र देशमुख के गृहग्राम बघेरा में हुई थी। दूसरी प्रस्तुति ग्राम पैरी (बालोद,जिला दुर्ग के पास) छत्तीसगढ़ के जनकवि श्री कोदूराम "दलित" को समर्पित करते हुए दाऊ जी ने मंच पर उनकी धर्म-पत्नी को सम्मानित किया था. इस आयोजन की भव्यता का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि चंदैना गोंदा देखने सुनने के लिए लगभग सत्तर से अस्सी हजार दर्शक ग्राम पैरी में उमड़ पड़े थे. इस प्रदर्शन के बाद जहाँ भी चंदैनी-गोंदा का आयोजन होता,आस -पास के सारे गाँव खाली हो जाया करते थे. सारी भीड़ चंदैनी-गोंदा के मंच के सामने रात भर मधुर गीतों और संगीत की रसभरी चांदनी में सराबोर हो जाया करती थी. इसके बाद छत्तीसगढ़ के कई स्थानों पर चंदैनी-गोंदा के सफल प्रदर्शन हुए. चंदैनी-गोंदा के प्रदर्शन छत्तीसगढ़ के बाहर भी कई शहरों में हुए. "चंदैनी गोंदा" के कुल निन्यानबे प्रदर्शन हुए। निन्यानबे प्रदर्शनों के बाद जब दाऊ जी को लगा कि चंदैनी गोंदा का उद्देश्य पूर्ण हो चुका है तन उन्होंने चंदैनी गोंदा का विधिवत विसर्जन कर दिया था।
चंदैनी-गोंदा के उद्घोषक सुरेश देशमुख की मधुर और सधी हुई आवाज दर्शकों को भोर तक बाँधे रहती थी. चंदैनी गोंदा के मधुर गीतों को स्वर देने वाले प्रमुख गायक-गायिका थे रविशंकर शुक्ल, लक्ष्मण मस्तुरिया, भैय्यालाल हेडाऊ, केदार यादव, अनुराग ठाकुर, संगीता चौबे, कविता हिरकने (अब कविता वासनिक) साधना यादव, संतोष झाँझी, लीना, ज्योत्स्ना, मंजुला बनर्जी आदि. प्रमुख गीतकार लक्ष्मण मस्तुरिया के अलावा कवि रवि शंकर शुक्ल, पवन दीवान, कोदूराम "दलित", रामेश्वर वैष्णव,नारायणलाल परमार, रामरतन सारथी, द्वारिका प्रसाद तिवारी विप्र, भगवती सेन, हेमनाथ यदु, मुकुंद कौशल आदि कवियों के गीत भी चंदैनी गोंदा में प्रस्तुत होते थे। पारंपरिक गीत भी रहे. चंदैनी गोंदा के संगीतकार थे खुमान लाल साव और सह संगीत निर्देशक थे गिरिजाकुमार सिन्हा। हारमोनियम पर खुमान लाल साव, बेन्जो पर गिरिजा कुमार सिन्हा, बाँसुरी पर संतोष टांक, तबले पर महेश ठाकुर, ढोलक पर केदार यादव, मोहरी पर पंचराम देवदास, वायलिन पर दास सर आदि. मंच पर सशक्त अभिनय का लोहा मनवाते थे- दाऊ रामचंद्र देशमुख, भैया लाल हेडाऊ, शिव कुमार दीपक (हास्य), सुमन, शैलजा ठाकुर आदि. साउंड-सिस्टम पर नियंत्रण रहता था स्वर-संगम,दुर्ग के बहादुर सिंह ठाकुर का।
छत्तीसगढ़ी गीतों से सजे चंदैनी-गोंदा के मधुर गीतों का उल्लेख किये बिना यह लेख अधूरा ही रह जायेगा. "चल - चल गा किसान बोये चली धान असाढ़ आगे गा" में जहाँ आषाढ़ ऋतु का दृश्य सजीव होता था वहीँ "आगी अंगरा बरोबर घाम बरसत हे" - गीत ज्येष्ठ की झुलसती हुई गर्मी का एहसास दिलाती थी. "छन्नर-छन्नर पैरी बाजे, खन्नर-खन्नर चूरी" गीत में धान-लुवाई का चित्र उभर आता था, "आज दौरी माँ बैला मन"... गीत अकाल के बाद किसान की मार्मिक पीड़ा को उकेरता था. किसान कभी अपना परिचय देता ..."मैं छत्तीसगढ़िया हौं गा, मैं छत्तीसगढ़िया हौं रे, भारत माँ के रतन बेटा बढ़िया हौं गा".....कभी अपनी मातृ- भूमि को नमन करते हुए गा उठता .. "मैं बंदत हौं दिन-रात, मोर धरती-मैय्या जय होवै तोर".. चंदैनी-गोंदा में बाल मन में - "चंदा बन के जीबो हम, सुरुज बनके जरबो हम, अनियाई के आगू भैया, आगी बरोबर बरबो हम".. जैसे गीत के माध्यम से देश प्रेम की भावना का संचार किया गया तो कभी "आगे सुराज के दिन रे संगी" ... के द्वारा आजादी का जश्न मनाया गया.. संयोग श्रृंगार में नायक-नायिका ददरिया गाते झूमते नजर आते थे - "मोर खेती-खार रुमझुम, मन
भँवरा नाचे झूम-झूम किंदर के आबे चिरैया रे"... "नई बाँचे चोला छूट जाही रे परान, हँस-हँस के कोन हा खवाही बीड़ा पान". छत्तीसगढ़ी श्रृंगार-गीत में खुमान लाल साव ने अद्भुत संगीत से इस गीत को संवारा - "बखरी के तुमा नार बरोबर मन झूमे".... अपने नायक की स्मृति में कभी नायिका कह उठती है... "तोला देखे रहेवं गा, तोला देखे रहेवं रे,धमनी के हाट माँ बोइर तरी"... नायिका अपने घर का पता कुछ तरह से बताती है.. "चौरा माँ गोंदा, रसिया मोर बारी माँपताल".... प्रेम में रमी नायिका को जब मुलाकात में हुई विलम्ब का अहसास होता है तो घर लौटने का मनुहार कभी इस प्रकार से करती है... "अब मोला जान दे संगवारी, आधा रात पहागे मोला घर माँ देही गारी रामा"... और कभी कहती है.... "मोला जावन दे ना रे अलबेला मोर, अब्बड़ बेरा होगे मोला जावन दे ना".. नायिका के विरह गीतों में "काबर समाये रे मोर बैरी नयना मा", "मोर कुरिया सुन्ना से,बियारा सुन्ना रे,मितवा तोर बिना", "धनी बिना जग लागे सुन्ना रे नइ भावे मोला, सोना चाँदी महल अटारी"..का बेहतरीन मंचन किया गया..
चंदैनी-गोंदा में पारंपरिक गीतों में सोहर, बिहाव-गीत, गौरा-गीत, करमा, सुवा-गीत, राउत नाचा, पंथी नृत्य तथा अन्य लोक गीतों का समावेश भी खूबसूरती से किया गया था. गौरा गीत मंचन के समय बहुत बार कुछ दर्शकों पर तो देवी भी चढ़ जाती थी जिसे पारंपरिक तरीकों से शांत भी किया जाता था. चंदैनी-गोंदा के मंच के सामने पता ही नहीं चलता था की रात कैसे बीत गई.
चंदैनी-गोंदा के मुख्य गायक- गीतकार लक्ष्मण मस्तुरिया हैं. उपरोक्त अधिकांश गीत उन्ही के द्वारा रचित हैं सन २००० के दशक के प्रारंभ से शुरू हुई अनेक छत्तीसगढ़ी फिल्मों में उनके गीत लोकप्रिय हुए.. संगीतकार खुमान लाल साव ने छत्तीसगढ़ी गीतों को नया आयाम दिया. उन्होंने भी छत्तीसगढ़ी फिल्मों में अपना योगदान दिया है. चंदैनी-गोंदा के बाद छत्तीसगढ़ी लोक नाट्य और लोक मंच परिष्कृत रूप में बनने प्राम्भ हो गए. बाद के अन्य संगीतकारों की संगीत रचनाएँ भी काफी मशहूर हुई किन्तु उनमें कहीं न कहीं खुमान लाल साव की शैली का प्रभाव जरुर होता था. बंगाल में जैसे रविन्द्र-संगीत का प्रभाव है उसी तरह खुमान - संगीत पर भी विचार किया जाना चाहिए. भैयालाल हेडाऊ ने सत्यजीत रे की फिल्म सद्गति में भी अपने अभिनय की छाप छोड़ी. शैलजा ठाकुर भी रुपहले परदे पर नजर आई. सन १९८२ में ग्यारह ईपी रिकार्ड के जरिये चंदैनी गोंदा के बहुत से गीतों ने छत्तीसगढ़ में धूम मचाई, आज भी अच्छे सुनने वालों के पास ये गीत उनके संकलन में हैं.
चंदैनी गोंदा का प्रत्येक मंचन किसी न किसी साहित्यकार को समर्पित हुआ करता था और उन साहित्यकार को या उनके परिजन को चंदैनी गोंदा के मंच पर सम्मानित किया जाता था। दाऊ रामचंद्र देशमुख ने अपने मंच पर कभी भी किसी राजनैतिक हस्ती को चढ़ने नहीं दिया शायद इसीलिए आज की तारीख छत्तीसगढ़ के इतिहास में अंकित नहीं हो पायी। काश ! हमें भी इतिहास लिखना आता।
अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग छत्तीसगढ़

Post a Comment