
हिन्दी साहित्य की अविशम यात्रा के एक पड़ाव का दूसरा नाम है जनकवि आनन््दी सहाय शुक्ल । उनकी रचनाओं में हिंदी कान्य-परंपरा के शाश्वत मूल्य ही सुरक्षित नहीं है बरन उनमें स्वाधीनोत्तर भारत के आम आदमी की विवशता, व्यग्रता, सडा, आंकाक्षाओं और आस्थाओं का समग्र संसार भी अपनी पूरी संचेतना और प्रतिबद्धता के साथ उपस्थित है।
हद में ऐसी रचनाएँ बहुत कम हैं जो पढ़ने, सुनने या पारायण करने में समान रूप से आपको भीतर तक स्पर्श कर जाएँ | शुक्ल जी की कविताओं में हमें इसी मौलिकता और नख-शिख तक सर्वाग धार्मिकता की झलक मिलती है | काव्य- स्वना को उन्होंने एततपश्चर्या और साधना के रूप में ग्रहण किया है । वे कलम के 'सिपाही या जनकवि ही नहीं, वरन् साहित्य के यज्ञकुंड में तिल-तिल कर अपने प्राणों की समिधा समर्पित करने वाले काव्य सिद्ध तपस्वी हैं । हिंदी की काव्य-परंपरा को समृद्ध, बहुमुखी तथा शिखरधर्मी बनाने में उनके छह दशकों के एकनिष्ठ योगदान का
अभी निष्पक्ष मूल्यांकन नहीं हो पाया है। जब वह हो पाएगा तो किसी विस्फोट से कम नहीं होगा और हम देख पायेंगे एक सहखाब्दि से अनवरत प्रवहमान हिंदी की निष्पत्न परंपरा के उन भूमिगत सारस्वत स्रोतों को जो कभी सूखे नहीं। जनकवि आनंदी सहाय की काव्य धारा में उसी स्रोत का अजम्न प्रवाह देखा जा सकता है।
डॉ. बलदेव ने अपनी सतत सक्रिय, सशक्त और संवेदनशील लेखनी से शुक्लजी के काव्य संसार के सत्य को उद्घाटित करने के साथ संस्कारधानी रायगढ़ की काव्य-परंपरा और सांस्कृतिक वैभव के अनेक अंतरंग और अन्य ज्ञात प्रसंग भी प्रस्तुत किए हैं 1 इस नाते उनकी यह कृति"एक रचनाकार की शुष्क जीवनी, संस्मरण या उसकी कृतियों का शाखरीय मूल्यांकन ही नहीं, वरन् शहर के कालखंड विशेष का ....
लेखक / संपादक के पुत्र के द्वारा कन्टेट प्रकाशित करने के लिए कहा गया था उसके उपरांत उन्हीं के द्वारा कन्टेंट हटाने के अनुरोध पर किताब की पीडीएफ प्रति हटा दी गई है।