Raipur Rashmi History of District Hindi Gazetteer History रायपुर रश्मि दूसरी झलक इतिहास

राम Ram
रायपुर जिला प्राचीन महाकौशल Mahakaushal या दक्षिण कौशल Dakshin Kaushal के ठीक बीचो बीच पडता है। महाकौशल का विस्तार बरार से लेकर कटक तथा दक्षिण कौशल का नाम कब धराया गया, इसका कहीं पता नहीं लगता । यदि वह अवध प्रांतीय उत्तर कौशल का सम सामयिक है, तो निदान राम के समय से इसका संबंध जोडा जा सकता है, परंतु रामायण Ramayan में यह नाम नहीं मिलता, यद्यपि राम इस और बहुत दिनों तक विचरते रहे । उस समय यहाँ सघन जंगल था, जो दण्डकारण्य के नाम से प्रख्यात था। राम के समय में यहां जंगली जातियों का आधिपत्य जान पडता है। आर्यों की बस्ती कम थी । आर्यों के भेजे हुए ऋषि-मुनियों ने यहाँ-वहाँ आश्रम जमा लिये थे, जिसको मूल निवासी कदाचित् मदखिलत बेजा समझते थे, इसलिए उन्हें त्रास देते थे और मार भी डालते थे।
राम को तो ऋषि-मुनियों की हड्डियों के अटंगर बतलाए गए थे, ताकि आर्य राम आर्यों की रक्षा का अनुसंधान करें । यदि सरदार कीवे की कल्पना सत्य निकल आये कि रावण की लंका अमरकण्टक में थी, तो रायपुर में रावण के राज्य करने का संशय ही नही रह जाता और इस जिले के गोंडों का अपने को रावणवंशी बतलाना बिल्कुल उपयुक्त सिद्ध हो जाता है। बडी विचित्र बात तो यह दिखती है कि गोंडों के महाप्रतापी राजा संग्रामशाह के सुवर्ण सिक्कों में उसके नाम के साथ ' पुलस्त्यवंश' लिखा मिलता है । संग्राम शाह खीष्टीय सोलहवीं शताब्दी में हुआ है। इससे स्पष्ट है कि पुलस्त्य या पोलत्य (रावण) से संबंध की समृति अब तक नहीं मिटीं थी। स्मरण रहे कि संग्रामशाह उत्तरीय जिला के गढ़ा मंडला का राजा था, जहाँ पर गोडों के रावण से संबंध होने की आख्यायिका तक नहीं हैं। यह प्रकरण विचारणीय है।

अशोक Ashok
अति प्राचीनकाल में जो कुछ जैसा रहा हो, उसके निश्चय करने के लिए सामग्री नहीं है। इसलिए ये इतिहासकार के राम के समय से इकदम फलांग मार कर महाराजा अशोक के समय में उतरना पडता है। उस समय यह प्रांत कदाचित् कलिंगान्तर्गत था। अशोक ने सन् ईस्वी के 261 वर्ष पूर्व कलिंग पर चढाई की थी। कलिंग की सेना में 60 हजार पैदल सिपाही, 1 हजार अश्वारोही और 700 रणमतंग थे। उस पर आकमण करना अशोक के लिए भी कुछ ऐसा-वैसा काम नहीं था। कलिंग निवासी बड़े रण बाँकुरे थे। यद्यपि अंत में जय मिली तथापि युद्ध का परिणाम ऐसा हुआ कि अशोक को शोक पूर्ण कर दिया। एक लाख योद्धा खेत आये और डेढ लाख बंदी किये गए । इनसे भी अधिक संख्या युद्ध के परिणामस्वरूप अकाल रहेगा और अन्य विपत्तियों से पञ्चत्च की प्राप्त हुई। इस दु:खमय प्रकरण का विचार करने से अशोक का हृदय टूक-टूक हो गया और उसने प्रण कर लिया कि अब मैं कभी किसी से युद्ध न इस हिंसा ने उसके मन में ऐसी विरक्ति उत्पन्न की कि उसने अपना सनातनी धर्म का परित्याग कर अहिंसा परमो धर्म की शरण ली और बौद्ध हो गया। इस युद्ध में इसका अनुमान करना अब असंभव है, परंतु इतना तो अवश्य कहा जा सकता है कि संख्या अधिक नहीं तो हजारों में अवश्य रही होगी।

खारवेल Kharwel
अशोक की मृत्यु के पश्चात् कलिंग शीघ्र ही स्वतंत्र हो गया और एक अन्य अहिंसावादी धर्मानुयायी के हाथ जा पड़ा। यह राजा खारवेल था, जो जैन धर्म पालन करता था। इसने आंध्र देश के राजाओं पर चढाई की थी और कन्हान और बैनगंगा के पूरे मूषिक देश तक को अपने अधीन कर लिया था। तब तो रायपुर जिला उसके शासन में अवश्य रहा होगा। खारवेल कलिंग की गद्दी पर सन् ईस्वी से 219 वर्ष पूर्व विराजमान था। यह बड्डा प्रतापी राजा था। विद्वन्मन्डलीमण्डन सर आशुतोष मुकर्जी ने अपनी मृत्यु के कुछ दिन पूर्व 15 मार्च सन् 1923 को पटना में व्याख्यान देते हुए कहा था कि खीष्टीय सन् के पूर्व की दूसरी शताब्दी में भारतवर्ष में कोई ऐसा बड्डा शहर नहीं था, जो खारवेल की विशाल सेना को देखकर या उसका नाम सुन कर काँप न उठता रहा हो। जान पड्ता है कि स्थानीय शासन के लिए खारबेल ने अपने वंशज रायपुर को भेज दिए थे, जो प्राय: सात सौ वर्ष तक यहाँ राज्य करते रहे । उड्डीसा के उदयगिरि के शिलालेख में खारवेल के लिए हुए कामों का उल्लेख है उसमे उसे ' राजर्षि वंशकुल' में उत्पन्न बतलाया है। आरंग में जो महाराज भीमसेन का ताम्रपट मिला है, उसमें उसकी उत्पत्ति राजर्षि तुल्यकुल से बतलाई गई है। उदय गिरि का लेख ईस्वी सन् से 160 वर्ष पूर्व खोदा गया था। आरंग के ताम्रपट की तिथि सन् 601 ईस्वी है। यद्यपि भीमसेन हिंदू धर्मावलंबी जान पड्ता है, तथापि उसके खारवेल के वंशज होने में बाधा नहीं पड्ती । महाकौशल में कई क्षत्रिय राजा हो गए हैं, जो बौद्ध धर्म का पालन करते रहे और उनके वंशज हिंदू धर्म का पालन करने लगे।

समुद्र गुप्त Samudra Gupt
खारवेल या उसके वंशजों का अधिकार कब उठ गया और कलिंग और महाकौशल कब अलग-अलग हो गए, इसका अभी तक पता नहीं लगा, परंतु यह निश्चय है कि खीष्टीय चतुर्थ शताब्दी में पटना के महाराजा समुद्रगुप्त ने महाकौशल को अपने अधीन कर लिया, यद्यपि उसने पुराने राजाओं को निकाला नहीं । यही कारण है कि भीमसेन के पुरखे आरंग की गद्दी पर स्थिर रहे आये। आरंग के लेख में भीमसेन के पाँच पुरखों के नाम आते हैं अर्थात् उसका पिता दयित वर्मा द्वितीय, उसका पिता भीमसेन प्रथम, उसका पिता भीमसेन प्रथम, उसका पिता विभीषण, तिसका पिता दयित प्रथम, उसका पिता शूर । इस वंशावली से शूर का समय सन् 450 ईस्वी के लगभग पडेगा।
समुद्रगुप्त ने महाकौशल की चढाई 350 ई. के लगभग की थी। उस समय महाकौशल का राजा महेंद्र था। संभव है महेंद्र का वंशज शूर रहा हो। जो कुछ हो, आरंगवाले राजा पाटिलपुत्र (पटना) के राजाओं के अधीन थे। यह एक इसी बात से स्पष्ट है कि आरंग के लेख में गुप्त संवत् का उपयोग किया गया है। यदि वे उनके अधीन न होते तो कदाचित् कलचुरि या अन्य संवत् का उपयोग करते ।

बौद्ध राजा Baudh King
जान पडता है कि सप्तम शताब्दी में महाकौशल में एक ही राजा नहीं था। भिन्न-भिन्न भागों में भिन्न-भिन्न राजा थे, परंतु मूल राजधानी भद्रपतन या भद्रावती, वर्तमान भादक में थी। यह स्थान चांदा जिले में है। उस जमाने में यह स्थान बहुत प्रख्यात था। चीनी यात्री युवान च्वांग ने सन् 639 ईस्वी में लिखा है कि यहाँ का राजा क्षत्रिय है, परंतु बौद्ध धर्म पालता है। उसने यह भी लिखा है कि यहाँ पर दल सहस्त्र बौद्ध पुजारी हैं, जिससे मान्दक की उन्नति और गौरव का सरलता से अनुमान किया जा सकता है। युवान च्वांग के लेख से जान पडता है कि मोदक का राजा समस्त महाकौशल का अधिकारी था, तब तो रायपुर जिला पुन: बौद्ध राज्यान्तर्गत हो गया रहा होगा। चाहे वहाँ स्थानीय छोटे-मोटे राजा अन्य रहे हों । सिरपुर, तुरतुरिया आदि स्थानों में बुद्ध की विशाल मूर्तियाँ अब भी विद्यमान हैं। तुरतुरिया में तो बौद्ध भिक्खुनिया का विहार या मठ था। उस समय की प्रचलित प्रथा के अनुसार वहाँ पर पूजा स्व्रियों ही के द्वारा कराई जाती है। यद्यपि अब लौग बौद्धधर्म का नाम तक नहीं जानते।

सिरपुर Sirpur
बौद्धों का लोप कब हुआ, इसका कहीं पूरा प्रमाण नहीं मिलता, परंतु जान पड्ता है कि जब तक भादक का राजवंश भादक को राजधानी बनाए रहा, तब तक बौद्धधर्म की मान्यता करता रहा, यद्यपि उसने राजा उदयन के समय में शैव धर्म का ग्रहण कर लिया और थोडे ही दिनों के अनन्तर राजधानी पलट दी और इस जिले के श्रीपुर वर्तमान सिरपुर को श्रेय दिया।
उदयन अपने को पाण्डुवंश का बतलाता है । उसका पंती महाशिव तीवर देव था, जिसके ताम्रपत्र राजिम और बलौदा में मिले हैं । पुरातत्त्ववेत्ताओं ने उसका समय अष्टम शताब्दी निश्चित किया है । इस वंश में राज्याभिषेक होने पर दो ही नाम चलते थे अर्थात् महाशिव गुप्त और महाभव गुप्त । तीवर देव का गद्दी नाम महाशिव गुप्त था। इसके पश्चात् उसका भतीजा हर्षगुप्त सिंहासन 'पर बैठा, तब उसका नाम महाभव गुप्त हुआ। उसके बाद उसका लड्का महाशिव गुप्त बालार्जुन हुआ। इस समय तक इस सोमवंशी पाण्डववंश का प्रताप बढता गया और महाकौशल में प्रत्येक प्रकार की वृद्धि होती गई। तामप्रशासन की भाषा ही से जान पडता है कि इन राजाओं की सभाओं में अत्यंत सुशिक्षित और धुरंधर पंडित रहा करते थे। राज्य शासन की प्रणली भी अच्छी थी, परंतु जो चढता है, सो गिरता है। एक दिन वह आया कि सोमवंशियों को यथा नाम तथा गुणवाली राजधानी श्रीपुर को छोड कर विनीत हो विनीत पुर का आश्रय लेना पड़ा । शरभपुरवंशीय उनके स्थानापन्न हुए। इस वंश के दो ही राजाओं के नाम ज्ञात हैं अर्थात् महासुदेव राज और महाजयराज। इनके ताम्रशासनों में जो रायपुर, आरंग, खरियार और सारंगगढ़ में मिले हैं, वंशावली नहीं दी गई, न कोई विशेष विरुद्ध पाया जाता, जिससे उनकी ठीक स्थिति का पता लग जाता। उन्होंने जो ग्राम प्रदान किए हैं, वे रायपुर और बिलासपुर जिलों के बीचोबीच पडते हैं। ये शासन शरभपुर में लिखे गए थे । डॉक्टर स्टेन कुनफ के मतानुसार यह स्थान गोदावरी जिले में शरभवरम नाम से प्रसिद्ध हैं।यदि यह ठीक है तो ये लोग कोई तिलंगे राजा थे, जिन्होंने सिरपुर के सोमवंशियों को अपनी राजधानी से भगा दिए। तब सोमवंशी सोनपुर रियासत में जा बसे । इनका भाग्य एक बार फिर चमका और वे त्रिकलिंगाधिपति अर्थात् तिलंगाने के अधीश्वर हो गए और कदाचित् शरभपुरियों के वंश का अध:पतन कर दिया, परंतु हाथ से निकला रायपुर की ओर का प्रांत उनके अधिकार में फिर कभी नहीं आया, केवल उडीसा और तिलंगाने में उनकी वृद्धि होती रही।

हैहय Haihai
शरभपुरीय Sharabhpuriy महाकौशल में बहुत दिन नहीं ठहर पाए। उत्तर की ओर से हैहयों ने महाकौशल पर आक्रमण करना आरंभ किया और क्रमश: अनेक मण्डल अपने अधिकार में कर चले, यहाँ तक कि समस्त महाकौशल ही नहीं वरन् उसके आस-पास के डेश उनके अधिकार में आ गए । ये हैहेय जबलपुर निकटस्थ त्रिपुरी (वर्तमान तेवर) की कलचुरि शाखा के थे। त्रिपुरी के एक राजा कोकल्लदेव के अठारह पुत्र थे। ज्येष्ठ को त्रिपुरी की गद्दी मिली, शेष को एक 2 मण्डल दिया गया और प्रत्येक त्रिपुरी का माण्डलिक बना दिया गया। इनमें से एक बिलासपुर जिले के तुमान खोल का मांडलिक हुआ परंतु जान पड्ता है कि जंगली ने उसके वंशजों को निकाल दिया, तब त्रिपुरी वंश का राजपुत्र कलिंगराज भेजा गया। उसने अपने बाहुबल से सब को हटाकर तुम्माण (तुमान)में राजधानी स्थापित की और उसके गौरव को बढाया। उसके पश्चात् उसका लड्का कमलराज तुम्माण की गद्दी पर बैठा। इसने कोई विशेष बात नहीं की, परंतु इसके लड्के रत्नराज ने 45 मील आगे बढकर रत्नपुर बसाया और उसे राजधानी नियुक्त की । इसका लड्का पृथ्वीदेव और उसका जाजल्लदेव हुआ। पिछले राजा का समय बारहवीं शताब्दी के आदि में पडता है। इस राजा ने गोदावरी के उस पार तक का इलाका जीत लिया।

रायपुरी शाखा
मूल घराना त्रिपुरी की प्रथानुसार रतनपुर के राजा भी अपने वंशाद्भवों को जागीरदार या माण्डलिक बनाने और दूरस्थ प्रांतों का शासन उनके स्वाधीन करने लगे। इस प्रकार तुम्माण की एक डाल खलारी में जमाई गई। खलारी  और अन्यत्र के शिलालेखों से जान पड्ता है कि चौदहवीं शताब्दी के मध्य में रतनपुर से लक्ष्मीदेव नामक प्रतिनिधि भेजा गया। उसका लड्का सिंहण हुआ, जिसने शत्रु के 18 गढ़ जीत लिये। जान पड्ता है कि सिंह रतनपुर के राजा से बिगड उठा और स्वतंत्र होकर उसने अपनी राजधानी वर्तमान रायपुर नगर में स्थापित की । राजधानी नियुक्त होने से ही उसका नाम रायपुर (राजा का नगर) रखा गया। उसका लडका रामचंद्र और उसका ब्रह्मदेव हुआ। खलारी और रायपुर के शिलालेख ब्रह्मदेव के समय के हैं। उनकी तिथि 1402 और 1414 ई. से पड्ती है, परंतु रायपुरी शाखा की जो नामावली पायी जाती है, उसमें न ब्रह्मदेव का नाम, न उसके पुरखों का मिलता है। और न रतनपुरी सूची ही मैं उसका नाम पाया जाता है । तथापि उन दोनों सूचियों में जो पिछली दो-चार पीढियों के नाम हैं, वे ऐतिहासिक हैं और मुसलमानी तवारीखों में भी पाए जाते हैं। इसलिए जब तक अधिकतर प्रामाणिक नामावलियाँ प्राप्त नहीं हुईं, तब तक वर्तमान वंशावली का संशोधन नहीं किया जा सकता। रायपुर की वंशावली केशवदेव से आरम्भ होती है, जिसका समय 1418 ईस्वी लिखा पाया जाता है, परंतु 1402 और 1414 के बीच में ब्रह्मदेव का राज था। यदि केशवदेव का समय 1420 मान लिया जाए तो अलबत्ता कोई बाधा उपस्थित नहीं होती । वह सूची इस प्रकार की है।
केशवदेव 1420 ई.के. लगभग
भुवनेश्वरदेव 1438 लगभग
मानसिंहदेव 1463 लगभग
संतोषसिंहदेव 1478 लगभग
सूरतसिंह देव 1498 लगभग
सं 1518 लगभग
चामुंडासिंह देव 1528 लगभग
वंशीसिंह देव 1563 लगभग
धनसिंह देव 1582 लगभग
जैतसिंह देव 1603 लगभग
फलेसिंह देव 1615 लगभग
यादददेव 1633 लगभग
सोमदत्त देव 1650 लगभग
बलदेवसिंह देव 1662 लगभग
उम्मेदसिह देव 1685 लगभग
बनवीर सिंह देव 1705 लगभग
अमरसिंह देव 1741 ई.
किंवदंती है कि कलचुरियों ने अपने वंशज भण्डारी को सोरर की ओर राज दे दिया था। सोरर पहले धमतरी तहसील में था। अब वह दुर्ग जिले में शामिल कर दिया गया है। ये भण्डारी राजप्रसाद में कल्य अर्थात् कलेऊ (प्रात: भोजन) बनाकर दिया करते थे, इसलिए कल्पपाल कहलाते थे। ये प्रचण्ड सैनिक निकले। इसीलिए इनका दल प्राचीन दण्डनायक पाशिक के समान दण्ड सेना कहलाने लगा। अब कल्यपाल का अपभ्रंश कलवार या कलार और दण्ड सेना का डंड सेना हो गया है। डंड सेना कलार धमतरी की ओर बहुत है। ये लोग सोरर के कल्यपाल क्षत्रियों की दण्डसेना के वंशज हैं । पटना के संस्कृतज्ञ विद्वानों ने (महा महोपाध्याय पं. हरिहर कुपालु द्विवेदी विद्या वारिधि, महा महोपाध्याय पं. रघुनन्दन त्रिपाठी विद्यासागर, साहित्याचार्य पं. रामावतार शर्मा पाण्डेय एम. ए. शास्त्री, अनन्तप्रसाद विद्याभूषण एम. ए. पी. एच. डी. और काव्यतीर्थ पं. देवदत्त त्रिपाठी) हाल ही में अर्थात् भाद्र शु. 5 सं. 1981 को जो व्यवस्था पत्र दिया है, उसमें आदि ही में उन्होंने लिखा है, '' जन्मना शैष्डिक कल्यपाला हैहय राजवंशोद्भवा इति मत्स्याग्नि पुराण वचन प्रामाण्यात् सुस्थितम् । राज्यं च तेषां विन्ध्यपृष्ठेषु वीतिहोत्र मेकलादि जन पद सान्निध्ये महाभारत मत्स्यपुराण गणरत्न महोदधि अर्थात् शौण्डिक कल्यपाल जन्म से हैहय नाम राजवंश से उत्पन्न हुए हैं, यह बात मत्स्य पुराण और अग्नि पुराण के वचनों से निश्चित हो चुकी है और इन लोगों का राज्य विन्ध्य पर्वत के पीछे वीति होना और मेकलादि जनपदों (देशों) से मिला हुआ था और कि महाभारत, मत्स्य पुराण और गणरन्त महोदधि आदि ग्रंथों से सिद्ध होता है। उन्होंने कल्यपाल का आदि अर्थ भोजन पाल बतलाते हुए क्षेमेन्द्रकृत लोक प्रकाश का प्रमाण दिया है, जिसमें लिखा है कि राजकुल में सांयात्रिक कल्यपाल राज कार्य के अधिकारी भण्डार की व्यवस्था करने वाले थे। जब क्षत्रियों में व्यसन बढने लगे, उस समय मदिरा का विशेष प्रचार बढा, यहाँ तक कि क्षत्राणियाँ भी उसका उपयोग करने लगीं, जैसा कि बिल्हण के विक्रमांक देवचरित से प्रकट होता है । तब तो प्यालों के सामने कलेऊ देनेवाले का कलेऊ अलग धरा रह जाता होगा। कहावत है यथा राजा तथा प्रजा। जिस ओर राजा की रुचि हुई, उसी ओर विशेष ध्यान दिया जाने लगा। महामहोपाध्याय हर प्रसाद शास्त्री एम.ए. सी. आई.ई. का भी यही मत है और उनका कथन है कि मदिरा की विशेष वृद्धि मुसलमानी राज्य में हुई। नफे के लोभ ने किसी 1 को मदिरा बनाने के व्यवसाय में फैंसा दिया। जो कुछ हुआ हो, पटना की विद्वन्मंडली ने सुदृढ प्रमाणों द्वारा समर्थन करते हुए जो मत स्थित किया है, वह अकाट्य है।
अमरसिंहदेव हैहय अथवा कलचुरियों का अंतिम राजा था, जिसको भोंसलों ने निकाल बाहर किया। अमरसिंह का दिया हुआ ताम्रपत्र आरंग के एक लोधी के पास है, जिसमें संवत् 1792 अर्थात् सन् 1735 ई. की तिथि अंकित है। मरहठों ने सन् 1740 ई. में रतनपुर पर चढाई की और रघुवंश सिंह से राज्य छीन लिया। फिर सन् 1745 ई. में उसी वंश के मोहनसिंह को उन्होंने गद्दी पर बिठा दिया। पश्चात् 1758 में उसे निकाल दिया। अमरसिंह से मरहठे पहले नहीं बोले, परंतु सन् 1750 ई. में उसे थोडी सी जागीर देकर धीरे से अलग कर दिया। सन् 1753 ई. में वह मर गया, तब उस के लड्के शिवराजसिंह से वह जागीर भी छीन ली । इस प्रकार जड़ सूखी शाखा पुन: सूखे पत्ते अन्त। डेढ सहस्राब्दिक तरुहि बिलम न लग्यो झडंत ॥
जान पडता है कि हैहयों के आगमन के पूर्व इस ओर जो शासन प्रणाली प्रचलित थी, वहीं उन्होंने स्थिर शासन पद्धति रखी और अधिक बदल-बदल नहीं की। आदि में स्वभावत: विस्तार बढाने का नशा चढा रहता है। प्राचीन राजाओं को दिग्विजय का बडा शौक रहता था। हैहय इससे मुक्त नहीं थे। वे भी चारों ओर धावा करते रहे और जहाँ अवसर मिला, अन्य राजाओं को हरा कर अपने अधीन कर लिया, परंतु उन्हें अपने स्थान पर स्थिर रखा।
राज्य की क्षमता के अनुसार उन्होंने कर स्थिर कर दिया, परंतु राज्य व्यवस्था में हस्तक्षेप नहीं किया। इस प्रकार जाजल्लदेव के समय में दूर-दूर के राजा उसके अधीन हो गए थे। सन् 1114 के एक शिलालेख से जान पडता है कि गोदावरी के उस पार खिमड़ी (वर्तमान किमिड़ी) का राजा भी इनको कर देता था। इसी प्रकार वैरागढ़, लाजी, भंडारा, तलहारी, दंडकपुर, नन्दावती, कुकुट और दक्षिण कौशल के अनेक मंडल कर दिया करते थे। जान पडता है रायपुर जिले के मध्य भाग्य में एक विशेष मंडल का नाम दक्षिण कौशल था, जो हैहयों का करद था। इसको दक्षिण कौशल देश से भिन्न समझना चाहिए, जैसे जबलपुर जिला कुछ कम 4000 वर्ग मील विस्तीर्ण हैं, परंतु वह जबलपुर डिवीजन का पाँचवाँ हिस्सा है, इसी प्रकार दक्षिण कौशल देश और दक्षिण कौशल मण्डल में भेद रहा होगा।
हैहयों के अन्य माण्डलिक, सबका सिहवा, काकरय, भ्रमरबद, कान्तार, कुसुमभोग और कांदाडोंगर रहते थे। इनमें से किसी-किसी मंडल के भाग वर्तमान रायपुर जिले में शामिल हैं, जैसे मचका सिहवा, जिसका वर्तमान नाम मैचका सिहावा है। धमतरी पहले कांकेर में शामिल थी, जिसका प्राचीन नाम काकरय था। कांदाडोंगर, बिंद्रानवागढ़ जमींदारी है। और मण्डलों का अभी तक पता नहीं लगा। प्राचीन मण्डल पीछे से गढ़ कहलाने लगे। प्रत्येक गढ़ में प्राय: 84 गाँव रहने के कारण कभी-कभी उनको चौरासी कहते थे। चौरासियों के भीतर बहुधा बारह-बारह गाँव का जुट्ट रहता था। उनको बारहों या तालुका कहते थे। प्राचीन काल में मंडल का अधिकारी मांडलिक कहलाता था, परंतु छत्तीसगढ़ में उसे मंडल ही कहने का प्रचार हो गया था। अब भी किसी को शिष्टतापूर्वक सम्मान दिखलाना हो तो उस व्यक्ति का मंडल शब्द कह कर आदर किया जाता है। पीछे से मण्डलों के अधिकारियों की पदवी ठाकुर या दीवान रख दी गई है। तालुकों के अधिकारी पट्टकिल या पटेल कहलाते थे।
वे पीछे से बरौनिया वरहिया दाऊ या तालुकेदार Tallukedar कहलाने लगे । यह ध्यान में रखने योग्य है कि प्रत्येक चौरासी में 84 ही गाँव नहीं होते थे, किसी में कम किसी में अधिक रहते थे। इसी प्रकार बारहों में बारह प्रसंगानुसार, न्यूनाधिक गाँव रहते थे। कभी-कभी गाँव दो-चार पट्टियों में बंट जाते थे, परंतु हर एक पट्टेदार बना रहता था, इसके विपरीत किसी-किसी के कई गाँव रहते थे। राजा, ठाकुर, दाऊ इत्यादि उतनी ही भूमि पास रखते थे, जितनी उनके विस्तार के लिए आवश्यक होती थी। राजाओं के मांडलिक नियमित कर तो दिया ही करते थे, परंतु जब कभी किसी से लडाई छिड़ जाती तो उन्हें सेना द्वारा और डीलन सहायता देनी पड़ती थी । इसी प्रकार जब कभी विशेष कार्य का प्रसंग आ पड़ता तो उसके लिए भी सहायता देने के लिए बाध्य रहते थे, यथा राजकुल में यदि कोई विवाह या उत्सव हुआ तो ठाकुरों का कर्तव्य था कि वे यथोचित सहायता दें।

छत्तीसगढ़ 36 Garh 
मुसलमानी जमाने में मंडलों के नाम का बिल्कुल लोप हो गया और गढ़ शब्द का विशेष प्रचार हुआ। कहते हैं कि महाकौशल में किसी समय 36 गढ़ होने के कारण तमाम छत्तीसगढ़ कहलाने लगा। जैसे बंगाल में एक जिला चौबीस परगना के नाम से प्रख्यात हो गया है। हैहयों के समय में गढ़ बढकर 42 हो गए थे, तब भी प्रांत का नाम छत्तीसगढ़ ही बना रहा। रायपुर शाखा के अधिकार में आध अर्थात् 18 गढ़ थे, जिनके नाम ये हैं..
1. रायपुर, 2. पाटन, 3 सिमगा, 4. सिंगारपुर, 5. लवन, 6. अमीरा, 7. दुरुग, 8. सरधा, 9. सिरसा, 10. मोहदी, 11. खलारी, 12. सिरपुर, 13. फिंगेश्वर, 14. राजिम, 15. सिंगनगढ़, 16. सुवरमार प्राचीन गढ़ो की सीमाएँ बदल गई हैं और किसी किसी स्थान में जमींदारियां बन गई है। जिनका इस जिले में विशेष बाहुल्य है।
रायबहादुर हीरालाल शंका करते हैं और कहते हैं कि कदाचित् छत्तीसगढ़ चेदीशगढ़ का अपभ्रंश न हो रतनपुर के राजा चेदीश कहलाते थे, जैसा कि किसी-किसी ताम्रपात्र में लिखा पाया जाता | है, यथा अभी बिलासपुर जिले के अमोदा ग्राम में एक ताम्रपत्र मिला है, जिसके अंत में चेदीसस्य सं. 831 अंकित है, यह रत्नपुर के राजा प्रथम पृथ्वी देव का दान पत्र है। जब सन् 1076 ई. में ' इन राजाओं का चलाया संवत् चेदीस संवत् कहलाता था तो कालान्तर में उनके दुर्ग या गढ़ो को चेदीसगढ़ कहना संगत नहीं जान पडता । धीरे-धीरे कुछ काल में उसका छत्तीसगढ़ धारण करना कोई असाधारण बात नहीं जान पड़ती ।
भोंसले Bhonsle
मरहठों ने सन् 1741 ई. में बंगाल को लूटने के लिए कूच किया । रास्ते में रतनपुर का राज्य पड़ा। मरहठा सेनापति भास्कर पंत Bhaskar Pant ने उसकी राजधानी रतनपुर को घेर लिया और राजा रघुनाथसिंह King Raghunath Singh को हटा कर उसकी जगह उसी के संबंधी मोहनसिंह Mohan Singh को राजकाज सौंपकर आगे बढा। उस समय उसने रायपुर वाली शाखा को नहीं छेड़ा, परंतु सन् 1750 ई. में राजिम, रायपुर और पाटन अमरसिंह Amar Singh को देकर चुपचाप उसका राज्य अपने हस्तूग कर लिया और उस पर 7000 रुपये वार्षिक कर बिठा दिया। अमरसिंह जैसा पहले बता आये हैं, सन् 1753 ई. में मर गया। उस समय उसका लड़का शिवराजसिंह यात्रा को गया था। इस अवसर पर उसके बाप के तीन परगने भी जब्त कर लिये गए। परंतु जब बिम्बाजी 1757 ई. शासन करने को नागपुर से छत्तीसगढ़ आया, तब उसने शिवराजसिंह को उसके पुरखों के हर गाँव पीछे 1. परवरिश के लिए लगा दिया और बरगाँव नाम का एक गाँव माफी में दे दिया। यह प्रबंध सन् 1822 ई. तक स्थिर रहा। उसके पश्चात् गाँव पीछे रुपया देना बंद कर दिया गया और उसके बदले चार गाँव और माफी में दे दिए गए, जो हैहयों के वंशजों के हाथ में अब भी हैं। बिम्बाजी Bimbaji रतनपुर में रहकर शासन करता था। उसके समय में प्रबंध साधारण अच्छा रहा। वह स्वतंत्रतापूर्वक , काम करता था। सन् 1787 ई. में वह मर गया, तब रघुजी द्वितीय का भाई व्यंकोजी उसी के स्थान पर नियुक्त किया गया, पर वह छत्तीसगढ़ में ठहरना पसंद नहीं करता था। दस-बारह सालों में केवल दो-तीन बार छत्तीसगढ़ देखभाल कर कर वह नागपुर लौट गया। निदान सन् 1811 में काशी जाते समय वह छत्तीसगढ़ होकर निकला। अंत में वह काशी में मर गया। उसके समय में शासन करने के लिए नागपुर से सूबेदार भी दिए जाते थे, परंतु बिंबाजी की रानी आनंदी बाई के कारण उनकी कुछ चलने नहीं पाती थी। रानी की मृत्यु तक अर्थात् उन्नीसवीं शताब्दी के अंत तक उपद्रव होते रहे ओर गोलमाल बना ही रहा।

मरहठा सूबेदार Maratha Subedar
इसके पश्चात सन् 1818 ईस्वी तक, जबकि नागपुर के राजा आपा साहब को गद्दी से उतार नहीं दिया गया, क्रमश कई सूबेदारों ने छत्तीसगढ़ का शासन किया। उनके अधिकार विस्तृत थे। उनके काम पर आँख रखनेवाला कोई न था, इसलिए वे लोग मनमानी करते थे। यथार्थ में इन लोगों को कमाने की पडी थी, प्रजा दु:ख सहे, उनकी बला से। वे लोग यह भी जानते थे कि राजा साहब अपने किसी कृपा पात्र को जब चाहें, तब उनकी जगह भेज देंगे, इसलिए जितनी जल्दी हो सकता था, उतनी जल्दी सम्पत्ति समेटने का सूबेदार यत्न करते थे। लूट और अत्याचार की हद ही नहीं थी। निदान जब बात प्रजा की सहनशक्ति के बाहर पहुँच गई, तब एक पीडि़त व्यक्ति ने अंतिम सूबेदार को गोली से मार डाला। रतनपुर के सूबेदारों की नामावली यह है.-1. विट्ठल दिनकर Viththal Dinkar, 2. कारूपंत Karu pant, 3. केशवपंत Keshav Pant, 4.भीका भाऊ Bhika Bhau, 5. सखाराम भाऊ Sakharam Bhau, 6. यादवराव दिवाकर Yadrao Divakar, 7. सखाराम बापू Sakharam Bapu। सखाराम बापू ने रतनपुर के एक सज्जन से यह कहकर कि मैं तुम्हें इज्जत और बहुत सी जमीन दिलवा दूँगा, उसका बहुत सा धन हड़प कर लिया। जबउसे उसके छल का पता पड़ा, तो उसने गोली से उसका काम तमाम कर दिया।
ऐसे समय में ब्रिटिश सरकार ने नाबालिग राजा रघुजी की ओर से छत्तीसगढ़ का प्रबंध अपने हाथ में लिया। सब से पहले कप्तान एड्मण्डस ने चार्ज लिया, परंतु उसकी शीघ्र ही मृत्यु हो जाने के कारण कर्नल एग्न्यू ने आकर सन् 1825 ई. तक काम किया। उसने पहले तो बिगडैल लोगों को सीधा किया। फिर शासन की ओर दृष्टि फेरी और इस प्रकार का सुधार किया कि लोगों में अमन-चैन का संचार हो चला। जब सन् 1830 ई. में भोंसला राजा बालिग हुआ, तब फिर मरहठी अमल हो गया, परंतु अंग्रेज कारोबारियों ने जो प्रथा बाँध दी थी, वह स्थिर रही और शासन में कुछ विशेष गड़बड़ नहीं हुई। तब से रायपुर में एक सूबेदार रहने लगा।

ब्रिटिश शासन
सन् 1854 ई. में नागपुर के राज्य का कोई वारिस नहीं रहा, तब राज्य अंग्रेजों के अधिकार में आ गया। उसी के साथ छत्तीसगढ़ भी उनके हाथ आ गया। पहले कप्तान इलियट इसका नियुक्त हुआ। सन् 1856 ई. में उसने कुल छत्तीसगढ़ में बीस तहसीलें स्थापित कीं, एक रायपुर में, एक धमतरी में और एक बिलासपुर में । फिर सन् 1857 में दुर्ग में एक और तहसील स्थापित की गई । सन् 1861 ई. में बिलासपुर रायपुर से अलग कर दिया गया। उसी साल सिमगा में एक और तहसील स्थगित की गई और वह रायपुर जिले में सम्मिलित की गई।
इस प्रकार रायपुर, धमतरी, दुर्ग और सिमगा इन चार तहसीलों का यह जिला सन् 1906 तक स्थिर रहा, अंत में दुर्ग में अलग जिला स्थापित किया गया, जिससे लगभग साढे तीन हजार वर्गमील का टुकडा रायपुर जिले से निकल गया। शेष भाग पुन: चार तहसीलों से विभक्त किया गया और रायपुर बलौदा बाजार उनके सदर मुकाम बनाये गए। नवीन तहसील बलौदा बाजार में कुछ भाग बिलासपुर जिले का और महासमुंद में सम्बलपुर का कुछ भाग सम्मिलित कर दिया गया।

गदर
छत्तीसगढ़ को अंग्रेजों के हाथ आये तीन वर्ष नहीं होने पाये थे कि भारत में गदर मच गया, जिसका थोड्डा सा असर इस दूरस्थ प्रांत पर भी पड़ा। रायपुर में उस समय कुछ थोडी सी फौज रहती थी। उसके सिपाहियों ने कुछ गड़बड़ आरंभ की, परंतु उसके अफसरों ने उन्हें शीघ्र दबा दिया। जिले के भीतर भी किसी ने दंगा-फिसाद नहीं किया, केवल सोनाखान के जमींदार नारायणसिंह ने सिर उठाया। उसके पास चार-पाँच सौ आदमी और सात आठ जिंजालें थीं। एक असिस्टेंट कमिश्नर ने सवा सौ आदमी लेकर सोनाखान पर धावा किया। आस-पास के जमींदार मदद पर थे। सोनाखान में दोनों ओर से गोलियाँ चलीं, अंत में नारायणसिंह ने हार मान कर शरण चाही, वह पकड़ कर रायपुर भेज दिया गया। वहाँ पर वह फाँसी पर चढ़ा दिया गया और उसकी जमींदारी जब्त कर ली गई।

प्रजा
गदर तक ईस्ट इंडिया कंपनी का अधिकार था। सन् 1858 ई. में ब्रिटिश राजकुल ने उसे अपने हाथ में ले लिया। उस समय श्रीमती विक्टोरिया सिंहासन पर थीं। उनके राज्य में प्रजा ने अमन-चैन से काल यापन किया। सन् 1901 ई. में जब उनकी मृत्यु हुई, तब उनके ज्येष्ठ पुत्र एण्डवर्ड सम्राट हुए। इनकी मृत्यु 1910 ई. में हो गई। तब वर्तमान महाराज पंचम सिंहासन पर बैठे।
पहले शासन केवल सरकारी अफसर द्वारा किया जाता था, परंतु सन् 1914 ई. में एक कानून बनाने वाली सभा स्थापित की गई जिसमें प्रजा के प्रतिनिधि सम्मिलित किये गए। सन् 1918 ई. में इस सभा में विशेष प्रकार के सुधार किये गए, जिससे प्रजा के प्रतिनिधियों की संख्या बहुत अधिक कर दी गई।
वर्तमान मध्य प्रदेश की कौंसिल में 71 सभासद हैं । उनमें से 58 प्रजा के चुने हुए हैं। इन्हीं चुने हुए सभासदों में से एक गवर्नर के सहाधिकारी और दो मंत्री बनाये जाते हैं। मंत्रियों के अधीन कुछ शासन अंग रखे गए हैं, जिनके चलाने की जिम्मेदारी उनके ऊपर रखी गई है। इन नवीन अधिकारों में प्रजा का स्वत्व भरा हुआ है। कानून बनाने वाली सभा में तीन साल में प्रतिनिधि चुने जाते हैं। चुनने में ऊँच-नीच का भेद भाव नहीं है। पहली बार की सभा में इस जिले का प्रतिनिधि एक चमार चुना गया था। इस जिले से बहुधा दो सभासदा चुने जाते हैं। वर्तमान कौंसिल में यहाँ के तीन मेम्बर हैं।
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